Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Hiralal Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 312
________________ द्वादशांग गणि-पिटक ] [ १९३ हैं, प्रज्ञापित की जाती हैं, प्ररूपित की जाती हैं, निर्देशित की जाती हैं और उपदर्शित की जाती हैं। यह कानुयोग है । ५६८ - से किं तं चूलियाओ ? जण्णं आइल्लाणं चउण्हं पुव्वाणं चूलियाओ, सेसाई पुव्वाइं अचूलियाई । से तं चूलियाओ । यह चूलिका क्या है ? आदि के चार पूर्वों में चूलिका नामक अधिकार है। शेष दश पूर्वों में चूलिकाएँ नहीं हैं । यह चूलिका है। विवेचन - दि० शास्त्रों में दृष्टिवाद का चूलिका नामक पाँचवां भेद कहा गया है और उसके पाँच भेद बतलाए गए हैं – जलगता चूलिका, स्थलगता चूलिका, मायागता चूलिका, आकाशगता चूलिका और रूपगता चूलिका । जलगता में जल-गमन, अग्निस्तम्भन, अग्निभक्षण, अग्नि प्रवेश और अग्नि पर बैठने आदि के मन्त्र-तन्त्र और तपश्चरण आदि का वर्णन है। स्थलगता में मेरु, कुलाचल, भूमि आदि में प्रवेश करने आदि के मन्त्र-तन्त्रादि का वर्णन है । मायागता में इन्द्रजाल-सम्बन्धी मन्त्रादि का वर्णन है । आकाशगता में आकाश-गमन के कारणभूत मन्त्रादि का वर्णन है। रूपगता में सिंह आदि के अनेक प्रकार रूपादि बनाने के कारणभूत मन्त्रादि का वर्णन है। ५६९ - दिट्ठिवायस्स णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा संखेज्जाओ पडिवत्तीओ, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ संगहणीओ । दृष्टिवाद की परीत वाचनाएँ हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियां हैं, संख्यात निर्युक्तियां हैं, संख्यात श्लोक हैं और संख्यात संग्रहणियां हैं । ५७० - से णं अंगट्टयाए बारसमे अंगे, एगे सुअक्खंधे, चउद्दस पुव्वाइं संखेज्जा वत्थू, संखेज्जा चूलवत्थू, संखेज्जा पाहुडा, संखेज्जा पाहुड - पाहुडा, संखेज्जाओ पाहुडियाओ, संखेज्जाओ पाहुडपाहुडियाओ, संखेज्जाणि पयसयसहस्साणि पयग्गेणं पण्णत्ताइं । संखेज्जा अक्खरा, अनंता गमा अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जंति पण्णविज्जंति परूविज्जंति दंसिज्जंति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति । से एवं आया, एवं णाया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करणपरूवणया आघविज्जंति । से तं दिट्टिवाए। से तं दुवालसंगे गणिपिडगे । यह दृष्टिवाद अंगरूप से बारहवाँ अंग है। इसमें एक श्रुतस्कन्ध है, चौदह पूर्व हैं, संख्यात वस्तु हैं, संख्यात चूलिका वस्तु हैं, संख्यात प्राभृत हैं, संख्यात प्राभृत- प्राभृत हैं, संख्यात प्राभृतिकाएं हैं, संख्यात प्राभृत-प्राभृतिकाएं हैं। पद गणना की अपेक्षा संख्यात लाख पद कहे गये हैं । संख्यात अक्षर हैं । अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं। ये सब शाश्वत, कृत, निबद्ध, निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भाव इस दृष्टिवाद में कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, दर्शित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं और उपदर्शित किये जाते हैं। इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता

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