________________
द्वादशांग गणि-पिटक]
[१६९ ___ आचार संक्षेप से पाँच प्रकार कहा गया है, जैसे-ज्ञानाचार, दर्शनाचार चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार। इस पाँच प्रकार के आचार का प्रतिपादन करनेवाला शास्त्र भी आचार कहलाता है। आचारांग की परिमित सूत्रार्थप्रदान रूप वाचनाएं हैं, संख्यात उपक्रम आदि अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं, संख्यात वेष्टक हैं, संख्यात श्लोक हैं, और संख्यात नियुक्तियाँ हैं।
विवेचन-ज्ञान का विनय करना, स्वाध्याय-काल में पठन-पाठन करना, गुरु का नाम नहीं छिपाना, आदि आठ प्रकार के व्यवहार को ज्ञानाचार कहते हैं। जिन-भाषित तत्त्वों में शंका नहीं करना, सांसारिक सुखभोगों की आकांक्षा नहीं करना, विचिकित्सा नहीं करना आदि आठ प्रकार के सम्यक्त्वी व्यवहार के पालन करने को दर्शनाचार कहते हैं। पाँच महाव्रतों का, पाँच समितियों आदि रूप चारित्र का निर्दोष पालन करना चारित्राचार है। बहिरंग और अन्तरंग तपों का सेवन करना तपाचार है। अपने आवश्यक कर्त्तव्यों के पालन करने में शक्ति को नहीं छिपा कर यथाशक्ति उनका भली-भांति से पालन करना वीर्याचार है।
उक्त पाँच प्रकार के आचार की वाचनाएं परीत (सीमित) हैं । आचार्य-द्वारा आगमसूत्र और सूत्रों का अर्थ शिष्य को देना 'वाचना' कहलाती है। आचाराङ की ऐसी वाचनाएं असंख्यात र होती हैं, किन्तु परिगणित ही होती हैं, अतः उन्हें 'परीत' कहा गया है। ये वाचनाएं उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के कर्मभूमि के समय में ही दी जाती हैं, अकर्मभूमि या भोगभूमि के युग में नहीं दी जाती
उपक्रम, नय, निक्षेप और अनुगम के द्वारा वस्तु-स्वरूप का प्रतिपादन किया जाता है, अतएव उन्हें अनुयोग-द्वार कहते हैं। आचाराङ्ग के ये अनुयोगद्वार भी संख्यात ही हैं। वस्तु-स्वरूप प्रज्ञापक वचनों को प्रतिपत्ति कहते हैं । विभिन्न मत वालों ने पदार्थों का स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार से माना है, ऐसे मतान्तर भी संख्यात ही होते हैं। विशेष-एक विशेष प्रकार के छन्द को वेढ या वेष्टक कहते हैं मतान्तर से एक विषय का प्रतिपादन करने वाली शब्दसंकलना को वेढ (वेष्टक) कहते हैं। आचाराङ्ग के ऐसे छन्दो विशेष भी संख्यात ही हैं। जिस छन्द के एक चरण या पाद में आठ अक्षर निबद्ध हों, ऐसे चार चरणवाले अनुष्टप छन्द को श्लोक कहते हैं। आचाराङ्ग में आचारधर्म के प्रतिपादन करने वाले श्लोक भी संख्यात ही हैं। सूत्र-प्रतिपादित संक्षिप्त अर्थ को शब्द की व्युत्पत्तिपूर्वक युक्ति के साथ प्रतिपादन करना नियुक्ति कहलाती है। ऐसी नियुक्तियाँ भी आचाराङ्ग की संख्यात ही हैं।
५१४-से णं अंगठ्ठयाए पढमे अंगे, दो सुयक्खंधा, पणवीसं अज्झयणा, पंचासीइं उद्देसणकाला, पंचासीइं समुद्देसणकाला, अट्ठारस पदसहस्साई, पदग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा, [अणंता गमा] अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता, थावरा सासया कडा निबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविजंति पण्णविनंति परूविजंति दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति।
से एवं णाया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करणपरूवणया आघविजंति पण्णविजंति परूविजंति दंसिजति निदंसिज्जति उवदंसिजति।सेत्तं आयारे॥
गणि-पिटक के द्वादशाङ्ग में अंग की (स्थापना की) अपेक्षा 'आचार' प्रथम अंग है। इसमें दो