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[समवायाङ्गसूत्र हो जाता है। इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तु-स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। यह आठवें अन्तकृत्दशा अंग का परिचय है।
___ ५४२-से किं तं अणुत्तरोववाइयदसाओ ? अणुत्तरोववाइयदसासु णं अणुत्तरोववाइयाणं नगराइं उज्जाणाइं चेइयाइं वणखंडा रायाणो अम्मा-पियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोग-परलोग-इड्डिविसेसा भोगपरिच्चाया पव्वज्जाओ सुयपरिग्गहा तवोवहणाइं परियागो पडिमाओ संलेहणाओ भत्तपाणपच्चक्खाणाइं पाओवगमणाई अणुत्तरोवववाओ सुकुलपच्चायाइ, पुणो बोहिलाभो अंतकिरियाओ य आघविजंति परूविजंति दंसिजंति निदंसिज्जंति उवदंसिजति।
अनुत्तरोपपातिकदशा क्या है ? इसमें क्या वर्णन है ?
अनुत्तरोपपातिकदशा में अनुत्तर विमानों से उत्पन्न होने वाले महा अनगारों के नगर, उद्यान चैत्य, वनखंड, राजगण, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथाएं, इहलौकिक पारलौकिक विशिष्ट ऋद्धियां, भोग-परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुत का परिग्रहण, तप-उपधान, पर्याय, प्रतिमा, संलेखना, भक्त-प्रत्याख्यान, पादपोपगमन, अनुत्तर विमानों में उत्पाद, फिर सुकुल में जन्म, पुन: बोधि-लाभ और अन्तक्रियाएं कही गई हैं,उनकी प्ररूपणा की गई है, उनका दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन कराया गया है।
५४३– अणुत्तरोववाइयदसासु णं तित्थकरसमोसरणाइं परममंगल्ल-जगहियाणि जिणातिसेसा य बहुविसेसा जिणसीसाणं चेव समणगण-पवर-गंधहत्थीणं थिरजसाणं परीसहसेण्ण-रिउबल-पमद्दणाणं तव दित्त-चरित्त-णाण-सम्मत्त सार-विविहप्पगार-वित्थरपसत्थगुणसंजुयाणं अणगारमहरिणीणं अणगारगुणाण वण्णओ, उत्तमवरतव-विसिट्ठणाणजोगजुत्ताणं,जह य जगहियं भगवओ जारिसा इडिट्विसेसा देवासुर-माणुसाणं परिसाणं पाउब्भावा य जिणसमीवं, जह य उवासंति, जिणवरं जह य परिकहंति धम्मं लोगगुरु अमर-नर-सुर-गणाणं सोऊण य तस्स भासियं अवसेसकम्मविसयविरत्ता नरा जहा अब्भुति धम्ममुरालं संजमं तवं चावि बहुविहप्पगारं जह बहूणि वासाणि अणुचरित्ता आराहियनाण दंसण-चरित्त-जोगा जिणवयणमणुगयमहियं भासिया जिणवराण हिययेणमणुण्णेत्ता जे य जहिं जत्तियाणि भत्ताणि छेअइत्ता लभ्रूण य समाहिमुत्तमज्झाणजोगजुत्ता उववन्ना मुणिवरोत्तमा जह अणुत्तरेसु पावंति जह अणुत्तरं तत्थं विसयसोक्खं। तओ य चुआ कमेण काहिंति संजया जहा य अंतकिरियं एए अन्ने य एवमाइअत्था वित्थरेण।
अनुत्तरोपपातिकदशा में परम मंगलकारी, जगत्-हितकारी तीर्थंकरों के समवसरण और बहुत प्रकार के जिन-अतिशयों का वर्णन है। तथा जो श्रमणजनों में, वरगन्धहस्ती के समान श्रेष्ठ हैं, स्थिर यशवाले हैं, परीषह-सेना रूपी शत्रु-बल के मर्दन करने वाले हैं, तप से दीप्त हैं, जो चारित्र, ज्ञान, सम्यक्त्वरूप सारवाले अनेक प्रकार के विशाल प्रशस्त गुणों से संयुक्त हैं, ऐसे अनगार महर्षियों के अनगार-गुणों का अनुत्तरोपपातिकदशा में वर्णन है। अतीव, श्रेष्ठ तपोविशेष से और विशिष्ट ज्ञान-योग से युक्त हैं, जिन्होंने जगत् हितकारी भगवान् तीर्थंकरों की जैसी परम आश्चर्यकारिणी ऋद्धियों की विशेषताओं