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द्वादशांग गणि-पिटक]
[१८५ ५४८-पण्हावागरणेसु णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेन्जाओ पडिवत्तीओ, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेन्जाओ निज्जुत्तीओ, संखेज्जाओ संगहणीओ।
प्रश्नव्याकरण अंग में परीत वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं, संख्यात्त प्रतिपत्तियाँ हैं, संख्यात वेढ हैं, संख्यात श्लोक हैं, संख्यात नियुक्तियां हैं और संख्यात संग्रहणियां हैं।
५४९-से णं अंगट्ठयाए दसमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, पणयालीसं उद्देसणकाला, पणयालीसं समुद्देसणकाला, संखेन्जाणि पयसयसहस्साणि पयग्गेणं पण्णत्ताई। संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविजंति पण्णविन्जंसि परूविजंति निदंसिजंति उवदंसिज्जंति। से एवं आया, से एवं णाया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करणपरूवणया आघविजंति०। से तं पण्हावागरणाई १०।।
प्रश्नव्याकरण अंगरूप से दशवां अंग है, इसमें एक श्रुतस्कन्ध है, पैंतालीस उद्देशन-काल हैं, पैंतालीस समुद्देशन-काल हैं । पद-गणना की अपेक्षा संख्यात लाख पद कहे गये हैं। इसमें संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं, इसमें शाश्वत, कृत, निबद्ध, निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भाव कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं, और उपदिर्शत किये जाते हैं। इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है। इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तु-स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है। यह दशवें प्रश्नव्याकरण अंग का परिचय है १०।
५५०-से किं तं विवागसुयं? विवागसुए णं सुक्कड-दुक्कडाणं कम्माणं फलविवागे आघविज्जति। से समासओ दुविहे पण्णत्ते। तं जहा-दुहविवागे चेव, सुहविवागे चेव, तत्थ णं दस दुहविवागाणि, दस सुहविवागाणि।
विंपाकसूत्र क्या है - इसमें क्या वर्णन है?
विपाकसूत्र में सुकृत (पुण्य) और दुष्कृत (पाप) कर्मों का फल-विपाक कहा गया है। यह विपाक संक्षेप से दो प्रकार का है-दुःख-विपाक और सुख-विपाक। इनमें दुःख-विपाक में दश अध्ययन हैं और सुख-विपाक में भी दश अध्ययन हैं।
५५१-से किं तं दुहविवागाणि? दुहविवागेसु णं दुहविवागाणं नगराई उज्जाणाई चेइयाई वणखंडा रायाणो अम्मा-पियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ नगरगमणाई संसारपबंधे दुहपरंपराओ य आघविजंति। से तं दुहविवागाणि।
यह दुःखविपाक क्या है - इसमें क्या वर्णन है?
दुःखविपाक में दुष्कृतों के दुःखरूप फलों को भोगनेवालों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथाएं (गौतम स्वामी का भिक्षा के लिए) नगरगमन, (पाप के फल से) संसार-प्रबन्ध में पड़ कर दुःख परम्पराओं को भोगने का वर्णन किया जाता है। यह दुःखविपाक है।