Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Hiralal Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 305
________________ १८६] [समवायाङ्गसूत्र ५५२-से किं तं सुहविवागाणि ? सुहविवागेसु सुहविवागाणं णगराइं उज्जाणाई चेइयाई वणखंडा रायाणो अम्मा-पियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइय-परलोइयइड्डिविसेसा भोगपरिच्चाया पव्वज्जाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाइं परियागा पडिमाओ संलेहणाओ भत्तपच्चक्खाणाइं पाओवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुलपच्चायाई पुणबोहिलाहा अंतकिरियाओ य आपविजंति। सुखविपाक क्या है - इसमें क्या वर्णन है ? सुखविपाक में सुकृतों के सुखरूप फलों को भोगनेवालों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथाएं, इहलौकिक-पारलौकिक ऋद्धिविशेष, भोग-परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुत-परिग्रह, तप-उपधान, दीक्षा पर्याय, प्रतिमाएं, संलेखनाएं, भक्तप्रत्याख्यान, पादपोपगमन, देवलोक-गमन, सुकुल-प्रत्यागमन, पुन: बोधिलाभ और उनकी अन्तक्रियाएं कही गई हैं। ५५३–दुहविवागेसुणं पाणाइवाय-अलियवयण-चोरिक्करण-परदारमेहुण-ससंगयाए महतिव्वकसाय-इंदियप्पमाय-पावप्पओय-असुहज्झवसाणसंचियाणं कम्माणं पावगाणं पाव अणुभागफलविवागा णिरयगति-तिरिक्खजोणि-बहुविहवसण-सय-परंपराबद्धाणं मणुपत्ते वि आगयाणं जहा पावकम्मसेसेण पावगा होति फलविवागा वह-वसण-विणास-नासा-कन्नुटुंगुट्ठकर-चरण-नहच्छेयण जिब्भ-च्छेअण-अंजणकडग्गिदाह-गयचलण-मलण-फलाण-उल्लंवणसूललया-लउड-लट्ठि-भंजण-तउसीस-गतत्तेल्ल-कलकल-अहिसिंचण-कुंभिपाग-कंपणथिरबंधण-वेह-वज्झ-कत्तण-पतिभय-कर-करपलीवणादि-दारुणाणि दुक्खाणि अणोवमाणि बहुविविहपरंपराणुबद्धा ण मुच्चंति पावकम्मवल्लीए। अवेयइत्ता हु णस्थि मोक्खो तवेण धिइधणियबद्धकच्छेण सोहणं तस्स वावि हुज्जा। दुःखविपाक के प्राणातिपात, असत्य वचन, स्तेय, पर-दार-मैथुन, ससंगता (परिग्रह-संचय) महातीव्र कषाय, इन्द्रिय-विषय-सेवन, प्रमाद, पाप-प्रयोग और अशुभ अध्यवसानों (परिणामों) से संचित पापकर्मों के उन पापरूप अनुभाग-फल-विपाकों का वर्णन किया गया है जिन्हें नरकगति, और तिर्यग-योनि में बहत प्रकार के सैकड़ों संकटों की परम्परा में पडकर भोगना पडता है। वहाँ से निकल कर मनुष्य भव में आने पर भी जीवों को पाप-कर्मों के शेष रहने से अनेक पापरूप अशुभ फलविपाक भोगने पड़ते हैं, जैसे-वध (दण्ड आदि से ताड़न) वृषण-विनाश (नपुंसकीकरण), नासा-कर्तन, कर्णकर्तन, ओष्ठ-छेदन, अंगुष्ठ-छेदन, हस्त-कर्तन, चरण-छेदन, नख-छेदन, जिह्वा-छेदन-अंजन-दाह (उष्ण लोहशलाका से आंखों को आंजना-फोड़ना), कटाग्निदाह (वांस से बनी चटाई से शरीर को सर्व ओर से लपेट कर जलाना), हाथी के पैरों के नीचे डालकर शरीर को कुचलवाना, फरसे आदि से शरीर को फाड़ना, रस्सियों से बाँधकर वृक्षों पर लटकाना, त्रिशूल-लता, लकुट (मूंठ वाला डंडा) और लकड़ी से शरीर को भग्न करना, तपे हुए कड़कड़ाते रांगा, सीसा एवं तेल से शरीर का अभिसिंचन करना, कुम्भी (लोह-भट्टी) में पकाना, शीतकाल में शरीर पर कपकंपी पैदा करने वाला अतिशीतल जल डालना, काष्ठ आदि में पैर फंसाकर स्थित (दृढ़) बाँधना, भाले आदि शस्त्रों से छेदन-भेदन करना, वर्द्धकर्तन (शरीर की खाल उधेड़ना) अति भय-कारक कर-प्रदीपन (वस्त्र लेपटकर और शरीर पर तेल डालकर दोनों हाथों में

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