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[समवायाङ्गसूत्र ५६२-से किं तं सुत्ताई? सुत्ताइं अट्ठासीति भवंतीतिमक्खायाइं। तं जहा-उजुगं परिणयापरिणयं बहुभंगियं विप्पच्चइयं [विन (ज) यचरियं ] अणंतरं परंपरं समाणं संजूहं (मासाणं) संभिन्नं आहच्चायं (अहव्वायं) सोवत्थि (वत्त)यं णंदावत्तं बहुलं पुट्ठापुढे वियावत्तं एवंभूयं दुआवत्तं वत्तमाणप्पयं समभिरूढं सव्वओ भई पणासं (पण्णासं) दुपडिग्गहं इच्चेयाई वावीसं सुत्ताई छिण्णछेअणइआई ससमय-सुत्तपरिवाडीए, इच्चेआइंवावीसं सुत्ताइं अछिन्नछेयनइयाई आजीवियसुत्तपरिवाडीए, इच्चेआई वावीसं सुत्ताई तिकणइयाई तेरासियसुत्तपरिवाडीए, इच्चेआई वावीसं सुत्ताइं चउक्कणइयाई ससमयसुत्तपरिवाडीए। एवामेव सपुव्वावरेण अट्ठासीति सुत्ताई भवंतीतिमक्खयाई। से त्तं सुत्ताई।
सूत्र का स्वरूप क्या है? सूत्र अठासी होते हैं, ऐसा कहा गया है, जैसे-१. ऋजुक, २ परिणतापरिणत ३ बहुभंगिक, ४ विजयचर्चा, ५ अनन्तर, ६ परम्पर, ७ समान (समानस),८ संजूह-संयूथ (जूह),९ संभिन्न, १० अहाच्चय, ११ सौवस्तिकं, १२ नन्द्यावर्त, १३ बहुल, १४ पृष्टापृष्ट, १५ व्यावृत्त, १६ एवंभूत, १७ द्वयावर्त्त, १८ वर्तमानात्मक, १९ समभिरूढ, २० सर्वतोभद्र, २१ पणाम (पण्णास) और २२ दुष्प्रतिग्रह। ये बाईस सूत्र स्वसमयसूत्र परिपाटी से छिन्नच्छेदनयिक हैं। ये ही बाईस सूत्र आजीविकसूत्रपरिपाटी से अच्छिन्नछेदनयिक हैं। ये ही बाईस सूत्र त्रैराशिकसूत्रपरिपाटी से त्रिकनयिक हैं और ये ही बाईस सूत्र स्वसमय सूत्रपरिपाटी से चतुष्कनयिक हैं। इस प्रकार ये सब पूर्वापर भेद मिलकर अठासी सूत्र होते हैं, ऐसा कहा गया है। यह सूत्र नाम का दूसरा भेद है।
विवेचन-जो नय सूत्र को छिन्न अर्थात् भेद से स्वीकार करे, वह छिन्नच्छेदनय कहलाता है। जैसे-'धम्मो मंगलमुक्किळं' इत्यादि श्लोक सूत्र और अर्थ की अपेक्षा अपने अर्थ के प्रतिपादन करने में किसी दूसरे श्लोक की अपेक्षा नहीं रखता है। किन्तु जो श्लोक अपने अर्थ के प्रतिपादन में आगे या पीछे के श्लोक की अपेक्षा रखता है, वह अच्छिन्नच्छेदनयिक कहलाता है। गोशालक आदि द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक और उभयार्थिक इन तीन नयों को मानते हैं, अतः उन्हें त्रिकनयिक कहा गया है। किन्तु जो संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द नय इन चार नयों को मानते हैं, उन्हें चतुष्कनयिक कहते हैं। त्रिकनयिक वाले सभी पदार्थों का निरूपण सत्, असत् और उभयात्मक रूप से करते हैं। किन्तु चतुष्कनयिक वाले उक्त चार नयों से सर्व पदार्थों का निरूपण करते हैं।
५६३-से किं तं पुव्वगयं ? पुव्वगयं चउद्दसविहं पन्नत्तं, तं जहा-उप्पायपुव्वं अग्गेणीयं वीरियं अत्थिनत्थिप्पवायं नाणप्पवायं सच्चप्पवायं आयप्पवायं कम्मप्पवायं पच्चक्खाणप्पवायं विज्जाणुप्पवायं अबझं पाणाऊ किरियाविसालं लोगबिन्दुसारं १४।
यह पूर्वगत क्या है-इसमें क्या वर्णन है? __ पूर्वगत चौदह प्रकार के कहे गये हैं। जैसे-१. उत्पादपूर्व, २. अग्रायणीपूर्व, ३. वीर्यप्रवादपूर्व, ४. अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व, ५. ज्ञानप्रवादपूर्व, ६. सत्यप्रवादपूर्व, ७. आत्मप्रवादपूर्व, ८. कर्मप्रवादपूर्व, ९. प्रत्याख्यानप्रवादपूर्व १० विद्यानुप्रवादपूर्व, ११. अबन्ध्यपूर्व, १२. प्राणायुपूर्व, १३. क्रियाविशाल पूर्व और १४ लोकबिन्दुसारपूर्व।