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द्वादशांग गणि-पिटक]
[१८७ अग्नि लगाना) आदि अति दारुण, अनुपम दुःख भोगने पड़ते हैं। अनेक भव-परम्परा में बंधे हुए पापी जीव पाप कर्मरूपी वल्ली के दुःख-रूप फलों को भोगे बिना नहीं छूटते हैं। क्योंकि कर्मों के फलों को भोगे बिना उनसे छुटकारा नहीं मिलता। हाँ, चित्त-समाधिरूप धैर्य के साथ जिन्होंने अपनी कमर कस ली है उनके तप-द्वारा उन पाप-कर्मों का भी शोधन हो जाता है।
५५४-एस्तो य सुहविवागेसुणं सील-संजम-नियम-गुण-तवोवहाणेसु साहूसुसुविहिएसु अणुकंपासयप्पओग-तिकालमइविसुद्ध-भत्त-पाणाइं पययमणसा हिय-सुह-नीसेस-तिव्वपरिणाम-निच्छिय मई पयच्छिऊणं पओगसुद्धाइंजह य निव्वत्तिंति उ बोहिलाभंजह य परित्तीकरेंति नर-नरय-तिरिय-सुरगमण-विपुलपरियट्ट-अरति-भय-विसाय-सोग-मिच्छत्तसेलसंकडं अण्णाणतमंधकार-चिक्खिल्लसुदुत्तारं जर-मरण-जोणिसंखुभियचक्कवालं सोलसकसायसावय-पयंडचंडं अणाइअं अणवदग्गं संसारसागरमिणं जह य णिबंधंति आउगं सुरगणेसु, जहग अणुभवंति सुरगणविमाणसोक्खाणि अणोवमाणि।ततो य कालंतरेचुआणं इहेव नरलोगमागयाणं आउ-वपु-पुण्ण-रूप-जाति-कुल-जम्म-आरोग्ग-बुद्धि-मेहाविसेसा मित्त-जण-सयण-धणधण्ण-विभव-समिद्धसार-समुदयविसेसा बहुविहकामभोगुब्भवाण सोक्खाण सुहविवागोत्तमेसु अणुवरय-परंपराणुबद्धा।
असुभाणं सुभाणंचेव कम्माणं भासिआ बहुविहा विवागा विवागसुयम्मि भगवया जिणवरेण संवेगकरणस्था, अन्नेवि य एवमाइया बहुविहा वित्थरेणं अत्थपरूवणया आघविनंति।
अब सुखविपाकों का वर्णन किया जाता है जो शील, (ब्रह्मचर्य या समाधि) संयम, नियम (अभिग्रह-विशेष), गुण (मूल गुण और उत्तर गुण) और तप (अन्तरंग-बहिरंग) के अनुष्ठान में संलग्न हैं, जो अपने आचार का भली-भांति से पालन करते हैं, ऐसे साधुजनों में अनेक प्रकार की अनुकम्पा का प्रयोग करते हैं, उनके प्रति तीनों ही कालों में विशुद्ध बुद्धि रखते हैं अर्थात् यतिजनों को आहार दूंगा, यह विचार करके जो हर्षानुभव करते हैं, देते समय और देने के पश्चात् भी हर्ष मानते हैं, उनको अति सावधान मन से हितकारक, सुखकारक, निःश्रेयसकारक उत्तम शुभ परिणामों से प्रयोग-शुद्ध (उद्गमादि दोषों से रहित) भक्त-पान देते हैं, वे मनुष्य जिस प्रकार पुण्य कर्म का उपार्जन करते हैं, बोधि-लाभ को प्राप्त होते हैं और नर, नारक, तिर्यंच एवं देवगति-गमन सम्बन्धी अनेक परावर्तनों को परीत (सीमित-अल्प) करते हैं तथा जो अरति, भय, विस्मय, शोक और मिथ्यात्वरूप शैल (पर्वत) से संकट (संकीर्ण) है, गहन अज्ञान-अन्धकार रूप कीचड़ से परिपूर्ण होने से जिसका पार उतरना अति कठिन है, जिसका चक्रवाल (जल-परिमंडल) जरा, मरण योनिरूप मगर-मच्छों से क्षोभित हो रहा है, जो अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कषायरूप श्वापदों (खूखार हिंसक-प्राणियों) से अति प्रचण्ड अतएव भयंकर है, ऐसे अनादि अनन्त इस संसार-सागर को वे जिस प्रकार पार करते हैं, और जिस प्रकार देव-गणों में आयु बांधते-देवायु का बंध करते हैं तथा जिस प्रकार सुर-गणों के अनुपम विमानोत्पन्न सुखों का अनुभव करते हैं, तत्पश्चात् कालान्तर में वहाँ से च्युत होकर इसी मनुष्यलोक में आकर दीर्घ आयु, परिपूर्ण शरीर, उत्तम रूप, जाति कुल में जन्म लेकर आरोग्य, बुद्धि, मेधा-विशेष से सम्पन्न होते हैं, मित्रजन, स्वजन, धन, धान्य और वैभव से समृद्ध एवं सारभूत सुखसम्पदा के समूह से संयुक्त होकर बहुत प्रकार के काम-भोग-जनित, सुख