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द्वादशांग गणि-पिटक ]
को और देव, असुर, मनुष्यों की सभाओं के प्रादुर्भाव को देखा है, वे महापुरुष जिस प्रकार जिनवर के समीप जाकर उनकी जिस प्रकार से उपासना करते हैं तथा असुर, नर, सुरगणों के लोकगुरु वे जिनवर जिस प्रकार से उनको धर्म का उपदेश देते हैं वे क्षीणकर्मा महापुरुष उनके द्वारा उपदिष्ट धर्म को सुनकर के अपने समस्त काम-भोगों से और इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर जिस प्रकार से उदार धर्म को और विविध प्रकार से संयम और तप को स्वीकार करते हैं, तथा जिस प्रकार से बहुत वर्षों तक उनका आचरण करके, ज्ञान, दर्शन, चारित्र योग की आराधना कर जिन-वचन के अनुगत (अनुकूल) पूजित धर्म का दूसरे भव्य जीवों को उदेश देकर और अपने शिष्यों को अध्ययन करवा तथा जिनवरों की हृदय से आराधना कर वे उत्तम मुनिवर जहां पर जितने भक्तों का अनशन के द्वारा छेदन कर, समाधि को प्राप्त कर और उत्तम ध्यान योग से युक्त होते हुये जिस प्रकार से अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होते हैं और वहाँ जैसे अनुपम विषय - सौख्य को भोगते हैं, उस सब का अनुत्तरोपपातिकदशा में वर्णन किया गया है । तत्पश्चात् वहाँ से च्युत होकर वे जिस प्रकार से संयम को धारण कर अन्तक्रिया करेंगे और मोक्ष को प्राप्त करेंगे, इन सब का तथा इसी प्रकार के अन्य अर्थों का विस्तार से इस अंग में वर्णन किया गया है।
५४४ - अणुत्तरोववाइयदसासु णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखे पडिवत्तीओ, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ संखेज्जाओ संगहणीओ।
अनुत्तरोपपातिकदशा में परीत वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियां हैं, संख्यात वेढ हैं, संख्यात श्लोक हैं, संख्यात नियुक्तियां हैं और संख्यात संग्रहणियां हैं ।
५४५ - से णं अंगट्टयाए नवमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, दस अज्झयणा, तिन्नि वग्गा, दस उद्देसणकाला, दस समुद्देसणकाला, संखेज्जाइं पयसयसहस्साइं पयग्गेणं पण्णत्ताइं । संखेज्जाणि अक्खराणि, अनंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासया कडा णिबद्ध णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जंति पण्णविज्जंति परूविज्जंति निदंसिज्जंति उवदंसिज्र्ज्जति । से एवं आया, से एवं णाया एवं विण्णाया, एवं चरण-करणपरूवणया आघविज्जंति० । से तं अणुत्तरोववाइयदसाओ ९ ।
यह अनुत्तरोपपातिकदशा अंगरूप से नौवां अंग है। इसमें एक श्रुतस्कन्ध है, दश अध्ययन हैं, तीन वर्ग हैं, दश उद्देशन - काल हैं, दश समुद्देशन - काल हैं तथा पद-गणना की अपेक्षा संख्यात लाख पद कहे गये हैं। इसमें संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं, परिमित त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं। ये सब शाश्वत, कृत, निबद्ध निकाचित, जिन-प्रज्ञप्त भाव इस अंग में कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं, और उपदर्शित किये जाते हैं। इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता
है
इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तु-स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है। यह नौवें अनुत्तरोपपातिकदशा अंग का परिचय है ।
५४६ – से किं तं पण्हावागरणाणि ? पण्हावागरणेसु अट्टुत्तरं पसणसयं अट्ठत्तरं अपसिणसयं अट्ठत्तरं पसिणापसिणसयं विज्जाइसया नाग - सुवन्नेहिं सद्धिं दिव्वा संवाया आघविज्जति ।
१.
टीकाकार का कथन है-वर्ग अध्ययनों का समूह कहलाता है। वर्ग में अध्ययन दस हैं और एक वर्ग का उद्देशन एक साथ होता है । अतएव इसके उद्देशनकाल तीन ही होने चाहिए। नन्दीसूत्र में भी तीन का ही उल्लेख है। किन्तु यहाँ दश उद्देशनकाल कहने का अभिप्राय क्या , समझ में नहीं आता। - सम्पादक