Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Hiralal Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 300
________________ द्वादशांग गणि-पिटक] [१८१ खमा अज्जवं मद्दवं च सोअं च सच्चसहियं सत्तरसविहो य संजमो उत्तमं च बंभं आकिंचणया तवो चियाओ समिइगुत्तीओ चेव। तह अप्पमायजोगो सज्झायज्झाणाण य उत्तमाणं दोण्हं पि लक्खणाई। पत्ताण य संजमुत्तमं जियपरीसहाणं चउव्विहकम्मक्खयम्मि जह केवलस्स लंभो परियाओ जत्तिओ य जह पालिओ मुणिहिं पायोवगयो य, जो जहिं जत्तियाणि भत्ताणि छेअइत्ता अंतगडो मुनिवरो तमरयोघ विप्पमुक्को मोक्खसुहमणुत्तरं पत्ता। एए अन्ने य एवमाइअत्था वित्थरेण परूवेई। अन्तकृद्दशा क्या है - इसमें क्या वर्णन है? अन्तकृत्दशाओं में कर्मों का अन्त करने वाले महापुरुषों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलौकिक-पारलौकिक ऋद्धि-विशेष, भोग परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुत-परिग्रह, तप-४पधान, अनेक प्रकार की प्रतिमाएं, क्षमा, आर्जव, मार्दव, सत्य, शौच, सत्तरह प्रकार का संयम, उत्तम ब्रह्मचर्य, आकिंचन्य, तप, त्याग का तथा समितियों और गुप्तियों का वर्णन है। अप्रमाद-योग और स्वाध्याय-ध्यान योग, इन दोनों उत्तम मुक्ति-साधनों का स्वरूप, उत्तम संयम को प्राप्त करके परीषहों को सहन करने वालों को चार प्रकार के घातिकर्मों के क्षय होने पर जिस प्रकार केवलज्ञान का लाभ हुआ, जितने काल तक श्रमण-पर्याय और केवलि-पर्याय का पालन किया, जिन मुनियों ने जहाँ पादपोपगमसंन्यास किया, जो जहाँ जितने भक्तों का छेदन कर अन्तकृत मुनिवर अज्ञानान्धकार रूप रज के पुंज से विप्रमुक्त हो अनुत्तर मोक्ष-सुख को प्राप्त हुए, उनका और इसी प्रकार के अन्य अनेक अर्थों का इस अंग में विस्तार से प्ररूपण किया गया है। ५४०-अंतगडदसासुणं परित्ता वायणा,संखेज्जा अणुओगदारा,संखेज्जाओ पडिवत्तीओ संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ, संखेज्जगाओ संगहणीओ। अन्तकृत्दशा में परीत वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं, संख्यात वेढ और श्लोक हैं, संख्यात नियुक्त्यिाँ हैं और संख्यात संग्रहणियाँ हैं। ५४१-से णं अंगट्ठयाए अट्ठमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, दस अज्झयणा, सत्त वग्गा, दस उद्देसणकाला, दस समुद्देसणकाला,संखेन्जाइं पयसहस्साइं पयग्गेणं पण्णत्ताई।संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जणपण्णत्ता भावा आपविजंति. पण्णविज्जति. परूविजंति.निदंसिज्जति. उवदंसिज्जंति। से एवं आया, से एवं णाया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करणपरूवणया आघविजंति। से त्त अंतगडदसाओ ८। अंग की अपेक्षा यह आठवाँ अंग है। इसमें एक श्रुतस्कन्ध है । दश अध्ययन हैं, सात वर्ग हैं, दश उद्देशन-काल हैं, दश समुद्देशन-काल हैं, पदगणना की अपेक्षा संख्यात हजार पद हैं। संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं। ये सभी शाश्वत अशाश्वत निबद्ध निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भाव इस अंग के द्वारा कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं और उपदर्शित किये जाते हैं। इस अंग का अध्येता आत्मा ज्ञाता हो जाता है, विज्ञाता

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