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[ समवायाङ्गसूत्र
१८० ] बोहं ण य संजमुत्तमं तमरयोघविप्पमुक्का उवेंति जह अक्खयं सव्वदुक्खमोक्खं । एते अन्ने य एवमाइअत्था वित्थरेण य ।
उपासकदशांग में उपासकों (श्रावकों) की ऋद्धि-विशेष, परिषद् (परिवार), विस्तृत धर्म - श्रवण बोधिलाभ, धर्माचार्य के समीप अभिगमन, सम्यक्त्व की विशुद्धता, व्रत की स्थिरता, मूलगुण और उत्तरगुणों का धारण, उनके अतिचार, स्थिति- विशेष ( उपासक-पर्याय का काल - प्रमाण), प्रतिमाओं का ग्रहण, उनका पालन, उपसर्गों का सहन, या निरुपसर्ग-परिपालन, अनेक प्रकार के तप, शील, व्रत, गुण, वेरमण, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास और अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना जोषमणा (सेवना) से आत्मा को यथाविधि भावित कर, बहुत से भक्तों (भोजनों) को अनशन तप से छेदन कर, उत्तम श्रेष्ठ देव - विमानों में उत्पन्न होकर, जिस प्रकार उन उत्तम विमानों में अनुपम उत्तम सुखों का अनुभव करते हैं, उन्हें भोग कर फिर आयु का क्षय होने पर च्युत होकर (मनुष्यों में उत्पन्न होकर) और जिनमत में बोधि को प्राप्त कर तथा उत्तम संयम धारण कर तमोरज ( अज्ञान - अन्धकार रूप पाप - धूलि) के समूह से विप्रमुक्त होकर जिस प्रकार अक्षय शिव-सुख को प्राप्त हो सर्व दुःखों से रहित होते हैं, इन सबका और इसी प्रकार के अन्य भी अर्थों का इस उपासकदशा में विस्तार से वर्णन किया गया है।
५३७–उवासगदसासु णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ, संखेज्जाओ संगहणीओ। उपासकदशा अंग में परीत वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं, संख्यांत प्रतिपत्तियां हैं, संख्यात वेढ हैं, संख्यात श्लोक हैं, संख्यात निर्युक्तियां हैं और संख्यात संग्रहणियां हैं ।
५३८ – से णं अंगट्टयाए सत्तमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, दस अज्झयणा, दस उद्देसणकाला, दस समुद्देसणकाला, संखेज्जाई पयसयसहस्साइं पयग्गेणं पण्णत्ताइं । संखेज्जाई अक्खराई, अनंता गमा, अनंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जंति पण्णविज्जंति, परूविज्जंति, निदंसिज्जंति उवदंसिज्जंति । से एवं आया से एवं या एवं विण्णाया, एवं चरण-करण परूवणया आघविज्जंति० । से त्तं उवासगदसाओ ७ ।
यह उपासकदशा अंग की अपेक्षा सातवां अंग हैं। इसमें एक श्रुतस्कन्ध है, दश अध्ययन हैं, दस उद्देश - - काल हैं, दश समुद्देशन - काल हैं। पद-गणना की अपेक्षा संख्यात लाख पद हैं, संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं। यह सब शाश्वत, अशाश्वत निबद्ध निकाचित जिनप्रज्ञप्त भाव इस अंग में कहे गए हैं, प्रज्ञापित किये गये हैं, प्ररूपित किये गये हैं निदर्शित और उपदर्शित किये गए हैं। इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है । इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तु-स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन ओर उपदर्शन किया जाता है । यह सातवें उपासकदशा अंग का विवरण है।
५३९–से किं तं अंतगडदसाओ ? अंतगडदसासु णं अंतगडाणं णगराई उज्जाणाई चेइयाई वणाई (वणखण्डा) राया अम्मा- पियरो समोसरणा धम्मायरिया धम्मकहा इहलोइअपरलोइअ - इड्डिविसेसा भोगपरिच्चाया पव्वज्जाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाइं पडिमाओ बहुविहाओ