Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Hiralal Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

Previous | Next

Page 297
________________ १७८] [समवायाङ्गसूत्र रखने और बल-वीर्य के प्रकट करने में दृढ़ निश्चय वाले हैं, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और समाधि-योग की जो आराधना करने वाले हैं, मिथ्यादर्शन, माया और निदानादि शल्यों से रहित होकर शुद्ध निर्दोष सिद्धालय के मार्ग की ओर अभिमुख हैं, ऐसे महापुरुषों की कथाएं इस अंग में कही गई हैं। तथा जो संयमपरिपालन कर देवलोक में उत्पन्न हो देव-भवनों और देव-विमानों के अनुपम सुखों को और दिव्य, महामूल्य, उत्तम, भोग-उपभोगों को चिर-काल तक भोग कर कालक्रम के अनुसार वहाँ से च्युत हो पुनः यथायोग्य मुक्ति के मार्ग को प्राप्त कर अन्तक्रिया से समाधिमरण के समय कर्म-वश विचलित हो गये हैं, उनको देवों और मनुष्यों के द्वारा धैर्य धारण कराने में कारणभूत, संबोधनों और अनुशासनों को, संयम के गुण और संयम से पतित होने के दोष-दर्शक दृष्टान्तों को, तथा प्रत्ययों को, अर्थान् बोधि के कारणभूत को सनकर शकपरिव्राजक आदि लौकिक मनि जन भी जरा-मरण का नाश करने वाले जिनशासन में जिस प्रकार से स्थित हुए, उन्होंने जिस प्रकार से संयम की आराधना की, पुनः देवलोक में उत्पन्न हए, वहाँ से आकर मनुष्य हो जिस प्रकार शाश्वत सख को और सर्वदःख-विमोक्ष को प्राप्त किया. उनकी तथा इसी प्रकार के अन्य अनेक महापुरुषों की कथाएं इस अंग में विस्तार से कही गई हैं। ५३२–णायाधम्मकहासु णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेन्जाओ पडिवत्तीओ, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निन्जुत्तीओ, संखेज्जाओ संगहणीओ। ज्ञाताधर्मकथा में परीत वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं, संख्यात वेढ हैं, संख्यात श्लोक हैं, संख्यात नियुक्तियाँ हैं और संख्यात संग्रहणियां हैं। ५३३-से णं अंगट्ठयाए छठे अंगे, दो सुअक्खंधा, एगूणवीसं अज्झयणा। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-चरिता य कप्पिया य। दस धम्मकहाणं वग्गा। तत्थ णं एगमेगाए धम्मकहाए पंच पंच अक्खाइयासयाई, एगमेगाए अक्खाइयाए पंच पंच उवक्खाइयासयाइं, एगमेगाए उवक्खाइयाए पंच पंच अक्खाइय-उवक्खाइयासयाई, एवमेव सप्पुव्वावरेणं अछुट्ठाओ अक्खाइयाकोडीओ भवंतीति मक्खायाओ। यह ज्ञाताधर्मकथा अंगरूप से छठा अंग है। इसमें दो श्रुतस्कन्ध हैं उनमें से प्रथम श्रुतस्कन्ध ( ज्ञात) के उन्नीस अध्ययन हैं। वे संक्षेप से दो प्रकार के कहे गये हैं – चरित और कल्पित । (इनमें से आदि के दस अध्ययनों में आख्यायिका आदिरूप अवान्तर भेद नहीं है। शेष नौ अध्ययनों में से प्रत्येक में ५४० आख्यायिकाएं हैं। प्रत्येक आख्यायिका में ५०० उपाख्यायिकाएं और प्रत्येक उपाख्यायिका में ५०० आख्यायिका उपाख्यायिकाएं हैं। इन का कुल जोड (५४० x ५०० x ५०० x ९ = १२१५००००००) एक सौ इक्कीस करोड़ पचास लाख होता है। धर्मकथाओं के दश वर्ग हैं। उनमें से एक-एक धर्मकथा में पांच-पांच सौ आख्यायिकाएं हैं, एक-एक आख्यायिका में पांच-पांच सौ उपाख्यायिकाएं हैं, एक-एक उपाख्यायिका में पांच-पांच सौ आख्यायिका-उपाख्यायिकाएं हैं । इस प्रकार ये सब पूर्वापर से गुणित होकर [(५०० x ५०० x ५०० = १२५००००००) बारह करोड़, पचास लाख होती हैं । धर्मकथा विभाग के दश वर्ग कहे गये हैं। अत: उक्त राशि को दश से गुणित करने पर (१२५०००००० x १० = १२५०००००००) एक सौ पच्चीस करोड़

Loading...

Page Navigation
1 ... 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379