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[समवायाङ्गसूत्र उद्देशनकाल हैं, [इक्कीस समुद्देशनकाल हैं।] पद-गणना की अपेक्षा इसमें बहत्तर हजार पद हैं। संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम (ज्ञान-प्रकार) हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत त्रस हैं। अनन्त स्थावर हैं। द्रव्य-दृष्टि से सर्व भाव शाश्वत हैं, पर्याय-दृष्टि से अनित्य हैं, निबद्ध हैं, निकाचित (दृढ़ किये गये) हैं, जिन-प्रज्ञप्त हैं। इन सब भावों का इस अंग में कथन किया जाता है, प्रज्ञापन किया जाता है, प्ररूपण किया जाता है, निदर्शन किया जाता है और उपदर्शन किया जाता है। इस अंग का अध्येता आत्मा ज्ञाता हो जाता है, विज्ञाता हो जाता है। इस प्रकार चरण और करण प्ररूपणा के द्वारा वस्तु के स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, परूपण, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है। यह तीसरे स्थानाङ्ग का परिचय है ॥३॥
५२२-से किं तं समवाए? समवाए णं ससमया सूइज्जंति, परसमया सूइज्जंति, ससमयपरसमया सूइज्जंति। जीवा सूइज्जंत, अजीवा सूइज्जंति, जीवाजीवा सूइज्जंति, लोगे सूइज्जति, अलोगे सुइज्जति, लोगालोगे सूइज्जति।
समवायाङ्ग क्या है? इसमें क्या वर्णन है?
समवायाङ्ग में स्वसमय सूचित किये जाते हैं, परसमय सूचित किये जाते हैं और स्वसमय-परसमय सूचित किये जाते हैं। जीव सूचित किये जाते हैं, अजीव सूचित किये जाते हैं, और जीव-अजीव सूचित किये जाते हैं। लोक सूचित किया जाता है, अलोक सूचित किया जाता है और लोक अलोक सूचित किया जाता है।
५२३ -समवाएणं एकाइयाणं एगट्ठाणं एगुत्तरियपरिवुड्ढीए दुवालसंगस्स वि गणिपिडगस्स पल्लवग्गे समणुगाइज्जइ, ठाणगसयस्स बारसविहवित्थरस्स सुयणाणस्स जगजीवहियस्स भगवओ समासेणं समोयारे आहिज्जति। तत्थ य णाणाविहप्पगारा जीवाजीवा य वणिया, वित्थरेण अवरे वि य बहुविहा विसेसा नरग-तिरिय-मणु-सुरगणाणं आहारुस्सासलेसा-आवास-संख-आययप्पमाण-उववाय-चवण-उग्गहणोवहि-वेयणविहाण-उपओग-जोगइंदिय-कसाया विविहा य जीवजोणी विक्खंभुस्सेहपरिरयप्पमाणं विहिविसेसा य मंदरादीणं महीधराणं कुलगर-तित्थगर-गणहराणं सम्मत्त-भरहाहिवाणचक्कीणं चेव चक्कहर-हलहराण य वासाण य निगमा य समाए एए अण्णे य एवमाइ एत्थ वित्थरेणं अत्था समाहिन्जंति।
समवायाङ्ग के द्वारा एक, दो, तीन को आदि लेकर एक-एक स्थान की परिवृद्धि करते हुए शत, सहस्र और कोटाकोटी तक के कितने ही पदार्थों का और द्वादशाङ्ग गणिपिटक के पल्लवानों (पर्यायों के प्रमाण) का कथन किया जाता है। सौ तक के स्थानों का, तथा बारह अंगरूप में विस्तार को प्राप्त, जगत् के जीवों के हितकारक भगवान् श्रुतज्ञान का संक्षेप से समवतार किया जाता है। इस समवायाङ्ग में नाना प्रकार के भेद-प्रभेद वाले जीव और अजीव पदार्थ वर्णित हैं। तथा विस्तार से अन्य भी बहुत प्रकार के विशेष तत्त्वों का, नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गणों के आहार, उच्छ्वास,लेश्या, आवास-संख्या, उनके आयामविष्कम्भ का प्रमाण, उपपात (जन्म) च्यवन (मरण) अवगाहना, उपधि, वेदना, विधान (भेद), उपयोग, योग, इन्द्रिय, कषाय, नाना प्रकार की जीव-योनियाँ, पर्वत-कूट आदि के विष्कम्भ (चौड़ाई) उत्सेध (ऊंचाई) परिरय (परिधि) के प्रमाण, मन्दर आदि महीधरों (पर्वतों) के विधि-(भेद) विशेष, कुलकरों,