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द्वादशांग गणि-पिटक]
[१७५ तीर्थंकरों, गणधरों, समस्त भरतक्षेत्र के स्वामी चक्रवर्तियों का, चक्रधर-वासुदेवों और हलधरों (बलदेवों) का, क्षेत्रों का, निर्गमों का अर्थात् पूर्व-पूर्व क्षेत्रों से उत्तर के (आगे के) क्षेत्रों के अधिक विस्तार का, तथा इसी प्रकार के अन्य भी पदार्थों का इस समवायाङ्ग में विस्तार से वर्णन किया गया है।
_५२४-समवायस्स णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ, संखेज्जा वेढा, संखेजा सिलोगा, संखेज्जाओ निन्जुत्तीओ।
समवायाङ्ग की वाचनाएं परीत हैं, अनुयोगद्वार संख्यात हैं, प्रतिपत्तियाँ संख्यात हैं, वेढ संख्यात हैं, श्लोक संख्यात हैं और नियुक्तियां संख्यात हैं।
५२५-से णं अंगट्ठयाए चउत्थे अंगे, एगे अज्झयणे, एगे सुयक्खंधे, एगे उद्देसणकाले (एगे समुद्देसणकाले)। चउयाले पदसयसहस्से पदग्गेणं पण्णत्ते।संखेजाणि अक्खराणि, अंणता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा सासया कडा निबद्धा निकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविजंति पण्णविन्जति परूविजंति निदंसिर्जति उवदंसिजंति। से एवं आया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करण परूवणया आघविज्जंति.। सेत्तं समवाए ४।
अंग की अपेक्षा यह चौथा अंग है, इसमें एक अध्ययन है, एक श्रुतस्कन्ध है, एक उद्देशन काल है, [एक समुद्देशन-काल है,] पद-गणना की अपेक्षा इसके एक लाख चवालीस हजार पद हैं। इसमें संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम (ज्ञान-प्रकार) हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत त्रस, अनन्त स्थावर तथा शाश्वत, कृत (अनित्य), निबद्ध, निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भाव इस अंग में कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, निर्देशित किये जाते हैं और उपदर्शित किये जाते हैं । इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है। इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तु के स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है। यह चौथा समवायाङ्ग हैं ४।
५२६ –से किं तं विवाहे? विवाहेण ससमया विआहिज्जंति, परसमया विआहिज्जंति, ससमय-परसमया विआहिज्जंति, जीवा विआहिजंति, अजीवा विआहिज्जति, जीवाजीवा विआहिज्जंति, लोगे विआहिज्जइ, अलोए विआहिज्जइ, लोगालोगे विआहिज्जइ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति क्या है - इसमें क्या वर्णन है?
व्याख्याप्रज्ञप्ति के द्वारा स्वसमय का व्याख्यान किया जाता है, पर-समय का व्याख्यान किया जाता है, तथा स्वसमय-परसमय का व्याख्यान किया जाता है। जीव व्याख्यात किये जाते हैं अजीव व्याख्यात किये जाते हैं तथा जीव और अजीव व्याख्यात किये जाते हैं। लोक व्याख्यात किया जाता है, अलोक व्याख्यात किया जाता है। तथा लोक और अलोक व्याख्यात किये जाते हैं।
५२७-विवाहे णं नाणाविहसुर-नरदि-रायरिसि-विविहसंसइअ-पुच्छिआणं जिणेणं वित्थरेण भासियाणं दव्व-गुण-खेत्त-काल-पज्जव-पदेस-परिणाम-जहत्थिभाव-अणुगमनिक्खेव-णयप्पमाण-सुनिउणोवक्कम-विविहप्पकार-पगडपयासियाणं लोगालोगपयासियाणं संसारसमुद्द-रुंद-उत्तरण-समत्थाणं सुरवइ-संपूजियाणं भवियजण-पय-हिययाभिनंदियाणं तमरयविद्वंसणााणं सुट्ठिदीवभूय-ईहामति-बुद्धि-बद्धणाणं छत्तीससहस्समणूणयाणं वागरणाणं