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[ समवायाङ्गसूत्र
अंग में इनका विस्तार से वर्णन किया गया है। तथा जीव - अजीव, लोक- अलोक, पुण्य-पाप आदि पदार्थों का विशद विवेचन किया है । यद्यपि अपनी-अपनी कल्पनाओं के अनुसार तत्त्वों का निरूपण करने वाले मत-मतान्तर अगणित हैं, फिर भी स्थूल रूप से उनको चार वर्गों में विभाजित किया गया है । वे हैं - १. क्रियावादी, २. अक्रियावादी, ३. अज्ञानिक और ४. वैनयिक । इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
पुण्य-पाप बन्ध-मोक्ष को तथा उनकी साधक क्रियाओं को मानते हुए भी एकान्त पक्ष को पकड़े हुए हैं, वे क्रियावादी कहलाते हैं । उनकी संख्या एक सौ अस्सी है । वह इस प्रकार हैक्रियावादी जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, पुण्य, पाप और मोक्ष इन नौ पदार्थों को मानते हैं। पुन: प्रत्येक पदार्थ को कोई स्वत: भी मानते हैं और कोई परत: भी मानते हैं। अतः नौ पदार्थों के अट्ठारह भेद हो जाते हैं। पुन: इन अट्ठारहों ही भेदों को कोई नित्यरूप मानते हैं और कोई अनित्य रूप मानते हैं, अतः अट्ठारह को दो से गुणित करने पर छत्तीस भेद हो जाते हैं । पुनः वे इन छत्तीसों भेदों को कोई कालकृत मानता है, कोई ईश्वरकृत मानता है, कोई आत्मकृत मानता है, कोई नियतिकृतं मानता है और कोई स्वभावकृत मानता है। इस प्रकार इन पाँच मान्यताओं से उक्त छत्तीस भेदों को गुणित करने पर (३६ १८०) एक सौ अस्सी क्रियावादियों के भेद हो जाते हैं ।
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२. अक्रियावादी पुण्य और पाप को नहीं मानते हैं, केवल जीवादि सात पदार्थों को ही मानते हैं और उन्हें कोई स्वतः मानता है और कोई परतः मानता है । अत: सात को इन दो भेदों से गुणित करने पर चौदह भेद हो जाते हैं। पुनः इन चौदह भेदों को कोई कालकृत मानता है, कोई ईश्वरकृत मानता है, कोई आत्मकृत मानता है, कोई नियतिकृत मानता है, कोई स्वभावकृत मानता है और कोई यदृच्छाजनित मानता है । इस प्रकार उक्त चौदह - पदार्थों को इन छह मान्यताओं से गुणित करने पर (१४ × ६ =. भेद अक्रियावादियों के हो जाते हैं ।
८४) चौरासी
३. अज्ञानवादियों की मान्यता है कि कौन जानता है कि जीव है, या नहीं? अजीव है, या नहीं? इत्यादि प्रकार से ये जीवादि पदार्थों को अज्ञान के झमेले में डालते हैं तथा जिन देव ने इन नौ पदार्थों का '(१) स्यादस्ति, (२) स्यान्नास्ति, (३) स्यादस्तिनास्ति, (४) स्यादवक्तव्य, (५) स्यादस्ति - अवक्तव्य, (६) स्यान्नास्ति - अवक्तव्य और (७) स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्य' इन सात भंगों के द्वारा निरूपण किया है, उनके विषय में भी अज्ञान को प्रकट करते हैं । इस प्रकार जीवादि नौ पदार्थों के विषय में उक्त सा भंग रूप अज्ञानता के कारण (९× ७ = ६३) तिरेसठ भेद हो जाते हैं । तथा नौ पदार्थों के अतिरिक्त दशवीं उत्पत्ति के विषय में भी उक्त सात भंगों में से आदि के चार भंगों के द्वारा अजानकारी प्रकट करते हैं। इस प्रकार उक्त ६३ में इन चार भेदों को जोड़ देने पर ६७ भेद अज्ञानवादियों के हो जाते हैं ।
४. विनयवादी सबका विनय करने को ही धर्म मानते हैं । उनके मतानुसार १. देव, २. नृपति, ३ . ज्ञाति, ४. यति, ५. स्थविर (वृद्ध), ६. अधम, ७. माता और ८. पिता इन आठों की मन से, वचन से और काय से विनय करना और इनको दान देना धर्म है। इस प्रकार उक्त आठ को मन, वचन, काय और दान इन चार से गुणित करने पर बत्तीस (८ x ४ = ३२) भेद विनयवादियों के हो जाते हैं 1