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द्वादशांग गणि-पिटक]
[१७१ रहे हैं और सहज बुद्धि का परिणमन संशय को प्राप्त हो रहा है, उनकी पाप उपार्जन करने वाली मलिन मति के दुर्गुणों के शोधन करने के लिए क्रियावादियों के एक सौ अस्सी, अक्रियावादियों के चौरासी, अज्ञानवादियों के सड़सठ और विनयवादियों के बत्तीस, इन सब (१८० + ८४+ ६७ + ३२ = ३६३) तीन सौ तिरेसठ अन्य वादियों का व्यूह अर्थात् निराकरण करके स्व-समय (जैन सिद्धान्त) स्थापित किया जाता है। नाना प्रकार के दृष्टान्तपूर्ण युक्ति-युक्त वचनों के द्वारा पर-मत के वचनों की भली भाँति निःसारता दिखलाते हुए, तथा सत्पद-प्ररूपणा आदि अनेक अनुयोग द्वारों के द्वारा जीवादि तत्त्वों को विविध प्रकार से विस्तारानुगम कर परम सद्भावगुण-विशिष्ट, मोक्षमार्ग के अवतारक, सम्यग्दर्शनादि में प्राणियों के प्रवर्तक, सकलसूत्र-अर्थसम्बन्धी दोषों से रहित, समस्त सद्गुणों से सहित, उदार, प्रगाढ अन्धकारमयी दुर्गों में दीपकस्वरूप, सिद्धि और सुगति रूपी उत्तम गृह के लिए सोपान के समान, प्रवादियों के विक्षोभ से रहित निष्प्रकम्प सूत्र और अर्थ सूचित किये जाते हैं।
५१७-सूयगडस्स णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ।
सूत्रकृतांग की वाचनाएँ परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्यात हैं, प्रतिपत्तियां संख्यात हैं, वेढ संख्यात हैं, श्लोक संख्यात हैं और नियुक्तियाँ संख्यात हैं।
५१८-से णं अंगट्ठायाए दोच्चे अंगे, दो सुयक्खंधा, तेवीसं अज्झयणा, तेत्तीसं उद्देसणकाला, तेत्तीसं समुद्देसणकाला, छत्तीसंपदसहस्साइं पयग्गेणं पण्णत्ताई।संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविजंति पण्णविजंति परूविजंति निदंसिर्जति उवदंसिजंति। से एवं आया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करण-परूवणया आघविजंति पण्णविनंति परूविजंति निदंसिजति उवदंसिजति। से तं सुअगडे २।
अंगों की अपेक्षा यह दूसरा अंग है। इसके दो श्रुतस्कन्ध हैं, तेईस अध्ययन हैं, तेतीस उद्देशनकाल हैं, तेतीस समुद्देशनकाल हैं, पद-परिमाण से छत्तीस हजार पद हैं, संख्यात अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्याय हैं। परिमित त्रस और अनन्त स्थावर जीवों का तथा नित्य, अनित्य सूत्र में साक्षात् कथित एवं नियुक्ति आदि द्वारा सिद्ध जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्ररूपित पदार्थों का सामान्य-विशेष रूप में कथन किया गया है; नाम, स्थापना आदि भेद करके प्रज्ञापन किया है, नामादि के स्वरूप का कथन करके प्ररूपण किया गया है, उपमाओं द्वारा दर्शित किया गया है, हेतु दृष्टान्त आदि देकर निर्देशित किया गया है और उपनयनिगमन द्वारा उपदर्शित किए गए हैं।
___ इस अंग का अध्ययन करके अध्येता ज्ञाता और विज्ञाता हो जाता है। इस अंग में चरण (मूल गुणों) तथा करण (उत्तर गुणों) का कथन किया गया है, प्रज्ञापना और प्ररूपणा की गई है। उनका निदर्शन और उपदर्शन कराया गया है। यह सूत्रकृतांग का परिचय है ॥२॥
विवेचन-जिन-भाषित सिद्धान्त को स्वसमय कहते हैं, कुतीर्थियों के द्वारा प्ररूपित सिद्धान्त को परसमय कहते हैं। और दोनों के सिद्धान्तों को स्वसमय-परसमय कहा जाता है। दूसरे सूत्रकृतांग