________________
७४]
[समवायाङ्गसूत्र १३. तिर्यंचानुपूर्वीनाम, १४. अगुरुलघुनाम, १५. उपघातनाम, १६. त्रसनाम, १७. बादरनाम, १८. अपर्याप्तकनाम, १९. प्रत्येकशरीरनाम, २०. अस्थिरनाम, २१.अशुभनाम, २२. दुर्भगनाम, २३. अनादेयनाम, २४. अयशस्कीर्तिनाम और २५, निर्माणनाम।
विवेचन-अत्यन्त संक्लेश परिणामों से युक्त मिथ्यादृष्टि अपर्याप्तक विकलेन्द्रिय जीव नामकर्म की उक्त २५ प्रकृतियों को बाँधता है। यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि विकलेन्द्रिय जीव द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के भेद से तीन पकार के होते हैं। अत: जब कोई जीव द्वीन्द्रिय-अपर्याप्तक के योग्य उक्त प्रकृतियों का बन्ध करेगा, तब वह विकलेन्द्रियजातिनाम के स्थान पर द्वीन्द्रियजाति नामकर्म का बन्ध करेगा। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय या चतुरिन्द्रिय जाति के योग्य प्रकृतियों को बांधने वाला त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय जातिनामकर्म का बन्ध करेगा। इसका कारण यह है कि जातिनाम कर्म के ५ भेदों में विकलेन्द्रिय जाति नाम का कोई भेद नहीं है। प्रस्तुत सूत्र में पच्चीस-पच्चीस संख्या के अनुरोध से और द्वीन्द्रियादि तीन विकलेन्द्रियों के तीन वार उक्त प्रकृतियों के कथन के विस्तार के भय से 'विकलेन्द्रिय' पद का प्रयोग किया गया है।
१७०-गंगा-सिंधूओ णं महानदीओ पणवीसं गाउयाणिं पुहुत्तेणं दुहओ घडमुहपवित्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं पवातेण पडंति।रत्ता-रत्तावईओ णं महाणदीओ पणवीसंगाउयाणि पुहत्तेणं मकरमुहपवित्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं पवातेण पडंति।
गंगा-सिन्धु महानदियाँ पच्चीस कोश पृथुल (मोटी) घड़े के मुख-समान मुख में प्रवेश कर और मकर (मगर) के मुख की जिह्वा के समान पनाले से निकल कर मुक्तावली हार के आकार से प्रपातद्रह में गिरती हैं। इसी प्रकार रक्त-रक्तवती महानदियाँ भी पच्चीस कोश पृथुल घड़े के मुख-समान मुख में प्रवेश कर और मकर के मुख की जिह्वा के समान पनाले से निकलकर मुक्तावली-हार के आकार से प्रपातद्रह में गिरती है।
विवेचन-क्षुल्लक हिमवंत कुलाचल या वर्षधरपर्वत के ऊपर स्थित पद्मद्रह के पूर्वी तोरण द्वार से गंगा महानदी और पश्चिमी तोरणद्वार से सिन्धुमहानदी निकलती है। इसी प्रकार शिखरी कुलाचल के ऊपर स्थित पंडरीकद्रह के पर्वी तोरणद्वार से रक्तामहानदी और पश्चिमी तोरणद्वार से रक्तवती महानदी निकलती है। ये चारों ही महानदियाँ द्रहों से निकल कर पहले पांच-पांच सौ योजन पर्वत के ऊपर ही बहती हैं। तत्पश्चात् गंगा-सिन्धु भरतक्षेत्र की ओर दक्षिणभिमुख होकर और रक्ता-रक्तवती ऐरवतक्षेत्र की ओर उत्तराभिमुख होकर भूमि पर अवस्थित अपने-अपने नाम वाले गंगाकूट आदि प्रपातकूटों में गिरती हैं। पर्वत से गिरने के स्थान पर उनके निकलने के लिए एक बड़ा वज्रमयी पनाला बना हुआ है उसका मुख पर्वत की ओर घड़े के मुख समान गोल है और भरतादि क्षेत्रों की ओर मकर के मुख की लम्बी जीभ के समान है तथा पर्वत से नीचे भूमि पर गिरती हुई जलधारा मोतियों के सहस्रों लड़ीवाले हार के समान प्रतीत होती है। यह जलधारा पच्चीस कोश या सवा छह योजन चौड़ी होती है।
१७१-लोगबिंदुसारस्स णं पुव्वस्स पणवीसं वत्थू पण्ण्त्ता । लोकबिन्दुसार नामक चौदहवें पूर्व के वस्तु नामक पच्चीस अर्थाधिकार कहे गये हैं।