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अष्टाविंशतिस्थानक - समवाय ]
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चक्षुरिन्द्रिय- अर्थावग्रह, ३ घ्राणेन्द्रिय-अर्थावग्रह, ४ जिह्वेन्द्रिय-अर्थावग्रह, ५ स्पर्शनेन्द्रिय-अर्थावग्रह ६. नोइन्द्रिय- अर्थावग्रह, ७ श्रोत्रेन्द्रिय-व्यंजनावग्रह, ८ घ्राणेन्द्रिय-व्यंजनावग्रह, ९ जिह्वेन्द्रिय-व्यंजनावग्रह, १० स्पर्शनेन्द्रिय-व्यंजनावग्रह, ११ श्रोत्रेन्द्रिय-ईहा, १२ चक्षुरिन्द्रिय-ईहा, १३. घ्राणेन्द्रिय - ईहा, १४ जिह्वेन्द्रियईहा, १५. स्पर्शनेन्द्रिय - ईहा, १६. नोइन्द्रिय-ईहा, १७ श्रोत्रेन्द्रिय- अवाय, १८ चक्षुरिन्द्रिय- अवाय, १९ घ्राणेन्द्रिय- अवाय, २० जिह्वेन्द्रिय- अवाय, २१ स्पर्शनेन्द्रिय- अवाय, २२ नोइन्द्रिय- अवाय, २३ श्रोत्रेन्द्रियधारणा, २४ चक्षुरिन्द्रिय-धारणा, २५ घ्राणेन्द्रिय-धारण, २६ जिह्वेन्द्रिय- धारणा, २७ स्पर्शनेन्द्रिय- धारणा ओर २८ नोइन्द्रिय- धारणा ।
विवेचन – किसी भी पदार्थ के जानने के पूर्व ' कुछ है' इस प्रकार का अस्पष्ट आभास होता है, उसे दर्शन कहते हैं। उसके तत्काल बाद ही कुछ स्पष्ट किन्तु अव्यक्त बोध होता है, उसे व्यंजनावग्रह कहते हैं। उसके बाद ‘यह मनुष्य है' ऐसा जो सामान्य बोध या ज्ञान होता है, उसे अर्थावग्रह कहते हैं। तत्पश्चात् यह जानने की इच्छा होती है कि यह मनुष्य बंगाली है या मद्रासी ? इस जिज्ञासा को ईहा कहते हैं। पुनः उसकी बोली आदि सुनकर निश्चय हो जाता है कि यह बंगाली नहीं किन्तु मद्रासी है, इस प्रकार के निश्चयात्मक ज्ञान को अवाय कहते हैं । यही ज्ञान जब दृढ हो जाता है, तब धारणा कहलाता है। कालान्तर में वह स्मरण का कारण बनता है । स्मरण स्वयं भी धारणा का एक अंग है। इनमें व्यंजनावग्रह मन और चक्षुरिन्द्रिय से नहीं होता क्योंकि इनसे देखी या सोची- विचारी गई वस्तु व्यक्त ही होती है, किन्तु व्यंजनावग्रह ज्ञान अव्यक्त या अस्पष्ट होता है। अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के चारों ज्ञान पांचों इन्द्रियों और छठे मन से होते हैं । अतः चार को छह से गुणित करने पर (४ x ६ २४) चौबीस भेद अर्थावग्रह सम्बन्धी होते हैं। और व्यंजनावग्रह मन और चक्षु के सिवाय शेष चार इन्द्रियों से होता है अतः चार भेदों को ऊपर के चौबीस भेदों में जोड़ देने पर (२४+४= २८) अट्ठाईस भेद आभिनिबोधिक ज्ञान के होते हैं । इसको ही मतिज्ञान कहते हैं । मन को 'नोइन्द्रिय' कहा जाता है, क्योंकि वह बाहर दिखाई नहीं देता । पर सोच-विचार से उसके अस्तित्व का सभी को परिज्ञान अवश्य होता है ।
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१८६ - ईसाणे णं कप्पे अट्ठावीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता ।
ईशान कल्प में अट्ठाईस लाख विमानावास कहे गये हैं ।
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१८७ - जीवे णं देवगइम्मि बंधमाणे नामस्स कम्मस्स अट्ठावीसं उत्तरपगडीओ बंधति, तं जहा – देवगतिनामं १, पंचिंदियजातिनामं २, वेडव्वियसरीरनामं ३, तेयगसरीरनामं ४, कम्मणसरीरनामं ५, समचउरंससंठाणनामं ६, वेडव्वियसरीरगोवंगणामं ७, वण्णनामं ८, गंधनामं ९, रसनामं १०, फासनामं ११, देवाणुपुव्विनामं १२, अगुरुलहुनामं १३, उवघायनामं १४, पराघायनामं १५, उस्सासनामं १६, पसत्थविहायोगइनामं १७, तसनामं १८, बायरनामं १९, पज्जत्तनामं २०, पत्तेयसरीरनामं २१, थिराथिराणं सुभासुभाणं आएज्जाणाज्जाणं दोन्हं अण्णयरं एग नामं २४, निबंधइ । [ सुभगनामं २५, सुस्सरनामं २६ ], जसोकित्तिनामं २७, निम्माणनामं २८ ।
देवगति को बांधने वाला जीव नामकर्म की अट्ठाईस उत्तरप्रकृतियों को बांधता है, वे इस प्रकार हैं - १ देवगतिनाम, २ पंचेन्द्रियजातिनाम, ३ वैक्रियशरीरनाम, ४ तैजसशरीरनाम, ५ कार्मणशरीरनाम, ६