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एकोनसप्ततिस्थानक-समवाय]
[१२७ जाती है। इसी बात को ध्यान में रखकर उक्त सूत्र में अड़सठ विजय, अड़सठ राजधानी, अड़सठ तीर्थंकर, अड़सठ चक्रवर्ती, अड़सठ बलदेव और अड़सठ वासुदेवों के होने का निरूपण किया गया है। पाँचों महाविदेह क्षेत्रों में कम से कम बीस तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं और अधिक से अधिक एक सौ साठ तक तीर्थंकर उत्पन्न हो जाते हैं। वे अपने अपने क्षेत्र में ही विहार करते हैं। यही बात चक्रवर्ती आदि के विषय में भी जानना चाहिए। उक्त संख्या में पांचों मेरु सम्बन्धी दो-दो भरत और दो दो ऐरवत क्षेत्रों के मिलाने से (१६०+१०=१७०) एक सौ सत्तर तीर्थंकरादि एक साथ उत्पन्न हो सकते हैं। यह विशेष जानना चाहिए।
३४१ -विमलस्स णं अरहओ अडसद्धिं समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपया होत्था। विमलनाथ अर्हन् के संघ में श्रमणों की उत्कृष्ट श्रमणसम्पदा अड़सठ हजार थी।
॥अष्टषष्टिस्थानक समवाय समाप्त॥
एकोनसप्ततिस्थानक-समवाय ३४२-समयखित्ते णं मंदरवज्जा एगूणसत्तरि वासा वासधरपव्वया पण्णत्ता, तं जहापणत्तीसं वासा, तीसं वासहरा, चत्तारि उसुयारा।
समयक्षेत्र (मनुष्य क्षेत्र या अढ़ाई द्वीप) में मन्दर पर्वत को छोड़कर उनहत्तर वर्ष और वर्षधर पर्वत कहे गये हैं, जैसे- पैंतीस वर्ष (क्षेत्र), तीस वर्षधर (पर्वत) और चार इषुकार पर्वत।
विवेचन-एक मेरुसम्बन्धी भरत आदि सात क्षेत्र होते हैं। अतः अढाई द्वीपों के पाँचों मेरु सम्बन्धी पैंतीस क्षेत्र हो जाते हैं। इसी प्रकार एक मेरुसम्बन्धी हिमवन्त आदि छह-छह वर्षधर या कुलाचल पर्वत हो जाते हैं तथा धातकीखण्ड के दो और पुष्करवरद्वीपार्ध के दो इस प्रकार चार इषुकार पर्वत हैं। इन सबको मिलाने पर (३५+३०+४=६९) उनहत्तर वर्ष और वर्षधर हो जाते हैं।
३४३-मंदरस्स पव्वयस्स पच्चथिमिल्लाओ चरमंताओ गोयमदीवस्स पच्चथिमिल्ले चरमंते एस णं एगूणसत्तरि जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते।
मन्दर पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से गौतम द्वीप का पश्चिम चरमान्त भाग उनहत्तर हजार योजन अन्तरवाला बिना किसी व्यवधान के कहा गया है।
३४४-मोहणिजवजाणं सत्तण्हं कम्मपगडीणं एगूणसत्तरि उत्तरपगडीओ पण्णत्ताओ।
मोहनीय कर्म को छोड कर शेष सातों कर्मप्रकृतियों की उत्तर प्रकृतियाँ उनहत्तर (५+९+२+४ +४२+२+५=६९) कही गई हैं।
॥एकोनसप्ततिस्थानक समवाय समाप्त॥