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अष्टसप्ततिस्थानक समवाय]
[१३५ अंगवंश की परम्परा में उत्पन्न हुए सतहत्तर राजा मुंडित हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए। ३६७-गद्दतोय-तुसियाणं देवाणं सत्तहत्तर देवसहस्सपरिवारा पण्णत्ता। गर्दतोय और तुषित लोकान्तिक देवों का परिवार सतहत्तर हजार (७७०००) देवों वाला कहा गया
३६८–एगमेगे णं मुहुत्ते सत्तहत्तर लवे लवग्गेणं पण्णत्ते। प्रत्येक मुहूर्त में लवों की गणना से सतहत्तर लव कहे गये हैं।
विवेचन-काल के मान-विशेष को लव कहते हैं। एक हृष्ट-पुष्ट नीरोग और संक्लेश-रहित मनुष्य के एक बार श्वास-उच्छ्वास लेने को एक प्राण कहते हैं। सात प्राणों का एक स्तोक होता है। सात स्तोकों का एक लव होता है और सतहत्तर लवों का एक मुहूर्त होता है। इस प्रकार एक मुहूर्त में तीन हजार सात सौ तेहत्तर (७ x ७४ ७७ = ३७७३) श्वासोच्छ्वास या प्राण होते हैं।
॥सप्तसप्ततिस्थानक समवाय समाप्त ॥
अष्टसप्ततिस्थानक-समवाय .. ३६९-सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो वेसमणे महाराया अट्ठहत्तरीए सुवन्नकुमारादीवकुमारा-वाससयसहस्साणं आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टितं महारायत्तं आणाईसर-सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे विहरइ।
देवेन्द्र देवराज शक्र का वैश्रमण नामक चौथा लोकपाल सुवर्णकुमारों और द्वीपकुमारों के (३८+४०=७८) अठहत्तर लाख आवासों (भवनों) का आधिपत्य, अग्रस्वामित्व, स्वामित्व, भर्तृत्व (पोषकत्व) महाराजत्व, सेनानायकत्व करता और उनका शासन एवं प्रतिपालन करता है। (भवनों से अभिप्राय उनमें रहने वाले देव-देवियों से भी है। वैश्रमण उन सब का लोकपाल है।)
३७०-थेरे णं अकंपिए अट्ठहत्तरि वासाई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे।
स्थविर अकम्पित अठहत्तर वर्ष की सर्व आयु भोग कर सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त हो सर्व दुःखों से रहित हुए।
३७१-उत्तरायणनियट्टे णं सूरिए पढमाओ मंडलाओ एगूणचत्तालीसइमे मंडले अट्ठहत्तर एगसट्ठिभाए दिवसखेत्तस्स निवुड्ढेता रयणिखेत्तस्स अभिवुड्ढेत्ता णं चारं चरइ। एवं दक्खिणायणनियट्टे वि।
उत्तरायण से लौटता हुआ सूर्य प्रथम मंडल से उनचालीसवें मण्डल तक एक मुहूर्त के इकसठिये अठहत्तर भाग प्रमाण दिन को कम करके और रजनीक्षेत्र (रात्रि) को बढ़ा कर संचार करता है। इसी प्रकार दक्षिणायण से लौटता हुआ भी रात्रि और दिन के प्रमाण को घटाता और बढ़ाता हुआ संचार करता है।
॥अष्टसप्ततिस्थानक समवाय समाप्त।