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त्रि-अशीतिस्थानक-समवाय]
[१३९ महाहिमवन्त वर्षधर पर्वत के ऊपरी चरमान्त भाग से सौगन्धिक कांड का अधस्तन चरमान्त भाग व्यासी सौ (८२००) योजन के अन्तरवाला कहा गया है। इसी प्रकार रुक्मी का भी अन्तर जानना चाहिए।
विवेचनरत्नप्रभा पृथिवी के तीन काण्ड या विभाग हैं -खरकांड, पंककांड और अब्बहुल काण्ड। इनमें से खरकांड के सोलह भाग हैं -१. रत्नकांड, २. वज्रकांड, ३ वैडूर्यकांड, ४. लोहिताक्ष कांड,५. मसारगल्ल, ६. हसंगर्भ,७. पुलक,८. सौगन्धिक, ९. ज्योतीरस, १०. अंजन, ११. अंजनपुलक, १२. रजत, १३. जातरूप, १४. अंक, १५ स्फटिक और १६ रिष्टकांड। ये प्रत्येक कांड एक एक हजार योजन मोटे हैं। प्रकृत में आठवें सौगन्धिक कांड का अधस्तन तलभाग विवक्षित है, जो रत्नप्रभा पृथिवी के उपरिम तल से आठ हजार योजन है। तथा रत्नप्रभापृथिवी के उपरिमतल से महाहिमवन्त वर्षधर पर्वत का उपरिमतल भाग दो सौ योजन है। इस प्रकार दोनों को मिलाकर (८०००+२००८२००) व्यासी सौ या आठ हजार दो सौ योजन का अन्तर महाहिमवन्त के ऊपरी भाग से सौगन्धिक कांड के अधस्तन तलभाग का सिद्ध हो जाता है।
रुक्मी वर्षधर पर्वत भी दो सौ योजन ऊंचा है, उसके ऊपरी भाग से उक्त सौगन्धिक काण्ड का अधस्तन तल भी व्यासी सौ (८२००) योजन के अन्तरवाला है।
॥द्वयशीतिस्थानक समवाय समाप्त ॥
त्रि-अशीतिस्थानक समवाय ३८४-समणे (णं) भगवं महावीरं वासीइ राइदिएहिं वीइक्कंतेहिं तेयासीइमे राइदिए वट्टामणे गब्भाओ गंब्भं साहरिए।
. श्रमण भगवान् महावीर व्यासी रात-दिनों के बीत जाने पर तियासीवें रात-दिन के वर्तमान होने पर देवानन्दा के गर्भ से त्रिशला के गर्भ में संहत हुए।
३८५-सीयलस्स णं अरहओ तेसीइं गणा, तेसीइं गणहरा होत्था। थेरे णं मंडियपुत्ते तेसीइं वासाइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे।
शीतल अर्हत् के संघ में तियासी गण और तियासी गणधर थे। स्थविर मंडितपुत्र तियासी वर्ष की सर्व आयु का पालन कर सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त हो सर्व दुःखों से रहित हुए।
३८६-उसभेणं अरहा कोसलिए तेसीइं पुव्वसयसहस्साइं अगारमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वइए। . भरहे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी तेसीइं पुव्वसयसहस्साई अगारमझे वसित्ता जिणे जाए केवली सव्वन्नू सव्वभावदरिसी।
कौशलिक ऋषभ अर्हत् तियासी लाख पूर्व वर्ष अगारवास में रह कर मुंडित हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए।
चातुरन्त चक्रवर्ती भरत राजा तियासी लाख पूर्व वर्ष अगारवास में रहकर सर्वज्ञ, सर्वभावदर्शी केवली जिन हुए।
॥त्र्यशीतिस्थानक समवाय समाप्त ॥