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अष्टाशीतिस्थानक-समवाय]
[१४५ ऊपर महाहिमवन्त कूट है, उसकी ऊंचाई पाँच सौ योजन है। इन तीनों को जोड़ने पर (८०००+२००+ ५००-८७००) सूत्रोक्त सतासी सौ योजन का अन्तर सिद्ध हो जाता है। इसी प्रकार रुक्मी वर्षधर पर्वत दो सौ योजन और उसके ऊपर का रुक्मी कूट पाँच सौ योजन ऊंचे हैं। अतः रुक्मी कूट के ऊपरी भाग से सौगन्धिक कांड के नीचे तक का सतासी सौ योजन का अन्तर भी सिद्ध है।
॥सप्ताशीतिस्थानक समवाय समाप्त॥
अष्टाशीतिस्थानक-समवाय ४०८-एगमेगस्स णं चंदिम–सूरियस्स अट्ठासीइ अट्ठासीइ महग्गहा परिवारो पण्णत्तो। प्रत्येक चन्द्र और सूर्य के परिवार में अठासी-अठासी महाग्रह कहे गये हैं।
४०९-दिट्ठिवायस्स णं अट्ठासीइं सुत्ताई पण्णत्ताई, तं जहा-उज्जसुयं परिणयापरिणयं एवं अट्ठासीइ सुत्ताणि भाणियव्याणि जहा नंदीए।
दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग के सूत्र नामक दूसरे भेद में अठासी सूत्र कहे गये हैं। जैसे ऋ , परिणता-परिणत सूत्र इस प्रकार नन्दीसूत्र के अनुसार अठासी सूत्र कहना चाहिए। (इनका विशेष वर्णन आगे १४७ वें स्थानक में किया गया है)।
४१०-मंदरस्स णं पव्वयस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ गोथुभस्स आवासपव्वयस्स पुरच्छिमिल्ले चरमंते एस णं अट्ठासीइं जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। एवं चउसु वि दिसासु नेथव्वं।
मन्दर पर्वत के पूर्वी चरमान्त भाग से गोस्तूप आवास पर्वत का पूर्वी चरमान्त भाग अठासी सौ (८८००) योजन अन्तरवाला कहा गया है। इसी प्रकार चारों दिशाओं में आवास पर्वतों का अन्तर जानना चाहिए।
विवेचन-सतासीवें स्थानक में आवास पर्वतों का मेरु पर्वत से सतासी हजार योजन का अन्तर बताया गया है, उसमें गोस्तूप आदि चारों आवास पर्वतों के एक-एक हजार योजन विस्तार को जोड़ देने पर अठासी हजार योजन का सूत्रोक्त अन्तर सिद्ध हो जाता है।
४११-बाहिराओ उत्तराओ णं कट्ठाओ सूरिए पढमं छम्मासं अयमाणे चोयालीसइमे मंडलगते अट्ठासीति इगसट्ठिभागे मुहुत्तस्स दिवसखेत्तस्स निवुड्ढेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिनिवुड्डत्ता सूरिए चारं चरइ। दक्खिणकट्ठाओ णं सूरिए दोच्चं छम्मास्सं अयमाणे चोयालीसतिमे मंडलगते अट्ठासीई इगसट्ठिभागे मुहत्तस्स रयणीखेत्तस्स निवुड्डत्ता दिवसखेत्तस्स अभिनिवुड्डित्ता णं सूरिए चारं चरइ।
बाहरी उत्तर दिशा से दक्षिण दिशा को जाता हुआ सूर्य प्रथम छह मास में चवालीसवें मण्डल में पहुंचने पर मुहूर्त के इकसठिये अठासी भाग दिवसक्षेत्र (दिन) को घटाकर और रजनीक्षेत्र (रात) को बढ़ा कर संचार करता है। [इसी प्रकार] दक्षिण दिशा से उत्तर दिशा को जाता हुआ सूर्य दूसरे छह मास पूरे करके चवालीसवें मण्डल में पहुंचने पर मुहूर्त के इकसठिये अठासी भाग रजनी क्षेत्र (रात) के घटाकर