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अनेकोत्तरिका-वृद्धि- समवाय]
[१६१ पार्श्व अर्हत् के छह सौ अपराजित वादियों की उत्कृष्ट कादिसम्पदा थी जो देव, मनुष्य और असुरों में से किसी से भी वाद में पराजित होने वाले नहीं थे। अभिचन्द्र कुलकर छह सौ धनुष ऊंचे थे। वासुपूज्य अर्हत् छह सौ पुरुषों के साथ मुंडित होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए थे। ६००।
४७२-बंभ-लंतएसु (दोसु) कप्पेसु विमाणा सत्त सत्त जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता।
ब्रह्म और लान्तक इन दो कल्पों में विमान सात-सात सौ योजन ऊंचे कहे गये हैं।
४७३-समणस्स णं भगवओ महावीरस्स सत्त जिणसया होत्था। समणस्स णं भगवओ महावीरस्स सत्त वेउव्वियसया होत्था। अरिट्ठणेमी णं अरहा सत्त वाससयाई देसूणाई केवलपरियागं पाउणित्ता सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे।
श्रमण भगवान् महावीर के संघ में सात सौ केवली थे। श्रमण भगवान् महावीर के संघ में सात सौ वैक्रियलब्धिधारी साधु थे। अरिष्टनेमि अर्हत् कुछ (५४ दिन) कम सात सौ वर्ष केवलिपर्याय में रह कर सिद्ध, बुद्ध, कर्म-मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए।
४७४-महाहिमवंतकूडस्स णं उवरिल्लाओ चरमंताओ महाहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स समधरणितले एस णं सत्त जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। एवं रुप्पिकूडस्स वि ७००।
महाहिमवन्त कूट के ऊपरी चरमान्त भाग से महाहिमवन्त वर्षधर पर्वत का समधरणीतल सात सौ योजन अन्तर वाला कहा गया है। इसी प्रकार रुक्मी कूट का भी अन्तर जानना चाहिए।
विवेचन–समभूमि तल से महाहिमवन्त और रुक्मी वर्षधर पर्वत दो-दो सौ योजन ऊंचे हैं और उनके महाहिमवन्तकूट और रुक्मीकूट पाँच-पाँच सौ योजन ऊंचे हैं। अत: उक्त कूटों के ऊपरी भाग से उक्त दोनों ही वर्षधर पर्वतों के समभूमि का अन्तर सात-सात सौ योजन का सिद्ध हो जाता है।
४७५–महासुक्क-सहस्सारेसु दोसु कप्पेसु विमाणा अट्ठजोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता।
महाशुक्र और सहस्रार इन दो कल्पों में विमान आठ सौ योजन ऊंचे कहे गये हैं।
४७६ - इमीसे णं रयणप्पमाए [ पुढवीए] पढमे कंडे अट्ठसु जोयणसएसु वाणमंतरभोमेज्जविहारा पण्णत्ता।
इस रत्नप्रभा पृथिवी के प्रथम कांड के मध्यवर्ती आठ सौ योजनों में वानव्यन्तर भौमेयक देवों के विहार कहे गये हैं।
विवेचन-वनों में वृक्षादि पर उत्पन्न होने से व्यन्तरों को 'वान' कहा जाता है। तथा उनके विहार, नगर या आवासस्थान भूमिनिर्मित हैं इसलिए उनको 'भौमेयक' कहा जाता है। दशवें अंजनकांड का उपरिम भाग समभूमि भाग से नौ सौ योजन नीचे है। उसमें से प्रथम रत्नकांड के सौ योजन कम कर देने पर वानव्यन्तरों के आवास अंजनकांड के उपरिम भाग तक मध्यवर्ती आठ सौ योजनों में पाये जाते हैं।
४७७-समणस्स णं भगवओ महावीरस्स अट्ठसया अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं