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नवतिस्थानक - समवाय ]
नवतिस्थानक - समवाय
४१५ – सीयले णं अरहा नउई धणूइं उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था ।
अजियस्स णं अरहओ नउई गणा नउई गणहरा होत्था । एवं संतिस्स वि ।
शीतल अर्हत् नव्वै धनुष ऊंचे थे।
अजित अर्हत् के नव्वै गण और नव्वै गणधर थे। इसी प्रकार शान्ति जिन के नव्वै गण और नव्वै
गणधर थे ।
४१६ – संयंभुस्स णं वासुदेवस्स णउइवासाइं विजए होत्था ।
स्वयम्भू वासुदेव ने नव्वै वर्ष में पृथिवी को विजय किया था ।
४१७–सव्वेसिं णं वट्टवेयड्डपव्वयाणं उवरिल्लाओ सिहरतलाओ सोगंधियकण्डस्स हेट्ठिल्ले चरमंते एस णं नउइजोयणसयाइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ।
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सभी वृत्त वैताढ्य पर्वतों के ऊपरी शिखर से सौगन्धिककाण्ड का नीचे का चरमान्त भाग नव्वै सौ (९०००) योजन अन्तरवाला है।
विवेचन – रत्नप्रभा पृथिवी के समतल से सौगन्धिककाण्ड आठ हजार योजन है और सभी वृत्त - वैताढ्य पर्वत एकहजार योजन ऊंचे हैं। अतः दोनों का अन्तर नव्वै सौ (८००० + १०००=९०००) योजन सिद्ध है।
॥ नवतिस्थानक समवाय समाप्त ॥
एकनवतिस्थानक - समवाय
४१८ - एकाणउई परवेयावच्चकम्मपडिमाओ पण्णत्ताओ । परवैयावृत्त्यकर्म प्रतिमाएं इक्यानवै कही गई हैं ।
विवेचन – दूसरे रोगी साधु और आचार्य आदि का भक्त - पान, सेवा-शुश्रूषा एवं विनयादि करने के अभिग्रह विशेष को यहाँ प्रतिमा पद से कहा गया है।
वैयावृत्त्य के उन इक्कानवै प्रकारों का विवरण इस प्रकार है
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१. दर्शन, ज्ञान चारित्रादि से गुणाधिक पुरुषों का सत्कार करना, २ . उनके आने पर खड़ा होना, ३. वस्त्रादि देकर सन्मान करना, ४ . उनके बैठते हुए आसन लाकर बैठने के लिए प्रार्थना करना, ५ . आसनानुप्रदान करना – उनके आसन को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना, ६. कृतिकर्म करना, ७.अंजली करना, ८. गुरुजनों के आने पर आगे जाकर उनका स्वागत करना, ९ गुरुजनों के गमन करने पर उनके पीछे चलना, १०. उन के बैठने पर बैठना । यह दश प्रकार का शुश्रुषा - विनय है । तथा १ तीर्थंकर, २. केवलिप्रज्ञप्त धर्म, ३ आचार्य, ४. वाचक (उपाध्याय), ५. स्थविर, ६ . कुल, ७. गण, ८. संघ ९. साम्भोगिक १० क्रिया (आचार) विशिष्ट, ११. विशिष्ट मतिज्ञानी, १२. श्रुतज्ञानी, १३. अवधिज्ञानी, १४. मन: पर्यवज्ञानी और १५. केवलज्ञानी इन पन्द्रह विशिष्ट पुरुषों की १ आशतना नहीं करना, २ . भक्ति