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[समवायाङ्गसूत्र मंडल से दूसरे मंडल की सिद्ध हो जाती है। इसी प्रकार दूसरे मंडल के विष्कम्भ में ५ ३५ के मिला देने पर (९९६४५+५ ३५ =९९६५१-९, निन्यानवै हजार छह सौ इकावन योजन और एक योजन के इकसठ भागों में से नौ भाग-प्रमाण विष्कम्भ तीसरे मंडल का निकल आता है। निन्यानवै हजार में ऊपर जो प्रथम मंडल में ६४० योजन की, दूसरे मंडल में ६४५ ३५/६९ योजन की और तीसरे मंडल में ६५१९ योजन की वृद्धि होती है, उसे सूत्र में 'सातिरेक' और 'साधिक' पद से सूचित किया गया है, जिसका अर्थ निन्यानवै हजार योजन से कुछ अधिक होता है।
४४६ –इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अंजणस्स कंडस्स हेट्ठिल्लाओ चरमंताओ वाणमंतर-भोमेजविहाराणं उवरिमंते एस णं नवनउइ जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते।
इस रत्नप्रभा पृथिवी के अंजन कांड के अधस्तन चरमान्त भाग से वान-व्यन्तर भौमेयक देवों के विहारों (आवासों) का उपरिम अन्तभाग निन्यानवै सौ (९९००) योजन अन्तरवाला कहा गया है।
विवेचन-रत्नप्रभा पृथिवी के प्रथम खरकाण्ड के सोलह कांडों में अंजनकांड दशवां है। उसका अधस्तन भाग यहां से दश हजार योजन दूर है। प्रथम रत्नकांड के प्रथम सौ योजनों के (बाद) व्यन्तर देवों के नगर हैं। इन सौ को दश हजार में से (१०,०००-१००=९९००) घटा देने पर सूत्रोक्त निन्यानवै सौ (९९००) योजन का अन्तर सिद्ध हो जाता है।
॥ नवनवतिस्थानक समवाय समाप्त ॥
शतस्थानक-समवाय ४४७-दसदसमिया णं भिक्खुपडिमा एगेणं राइंदियसतेणं अद्धछठेहिं भिक्खासतेहिं अहासुत्तं जाव आराहिया यावि भवइ।
दशदशमिका भिक्षुप्रतिमा एक सौ रात-दिनों में और साढ़े पाँच सौ भिक्षा-दत्तियों से यथासूत्र, यथामार्ग, यथातत्त्व से स्पृष्ट, पालित, शोभित, तीरित, कीर्तित और आराधित होती है।
विवेचन-इस भिक्षुप्रतिमा की आराधना दश-दश दिन के दिनदशक अर्थात् सौ दिनों के द्वारा की जाती है। पूर्व वर्णित भिक्षुप्रतिमाओं के समान इसमें भी प्रथम दश दिनों से लेकर दशवें दिनदशक तक प्रतिदिन एक-एक भिक्षादत्ति अधिक ग्रहण की जाती है। तदनुसार सर्व भिक्षादत्तियों की संख्या (१०+२०+३०+४०+५०+६०+७०+८०+९०+१००-५५०) पाँचसौ पचास हो जाती है। शेष आराधनाविधि पूर्व प्रतिमाओं के समान ही जानना चाहिए।
४४८-सयभिसया नक्खत्ते एक्कसयतारे पण्णत्ते। शतभिषक् नक्षत्र के एक सौ तारे होते हैं। ४४९-सुविही पुष्पदंते णं अरहा एगं धणुसयं उ8 उच्चत्तेणं होत्था।