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द्विसप्ततिस्थानक-समवाय]
[१२९ एकसप्ततिस्थानक-समवाय ३५०-चउत्थस्स णं चंदसंवच्छरस्स हेमंताणं एक्कसत्तरीए राइंदिएहिं वीइक्कंतेहिं सव्वबाहिराओ मंडलाओ सूरिए आउट्टि करेइ।
[पंच सांवत्सरिक युग के] चतुर्थ चन्द्र संवत्सर की हेमन्त ऋतु के इकहत्तर रात्रि-दिन व्यतीत होने पर सूर्य सबसे बाहरी मण्डल (चार क्षेत्र) से आवृत्ति करता है। अर्थात् दक्षिणायण से उत्तरायण की ओर गमन करना प्रारम्भ करता है।
३५१-वीरियप्पवायस्स णं पुव्वस्स एक्कसत्तरिं पाहुडा पण्णत्ता। वीर्यप्रवाद पूर्व के इकहत्तर प्राभृत (अधिकार) कहे गये हैं।
३५२-अजिते णं अरहा एक्कसत्तरिं पुव्वसयसहस्साई अगारमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता जाव पव्वइए। एवं सगरो वि राया चाउरंतचक्कवट्टी एक्कसत्तरिं पुव्व [ सयसहस्साई ] जाव [अगारमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता] पव्वइए।
अजित अर्हन् इकहत्तर लाख पूर्व वर्ष अगार-वास में रहकर मुंडित हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए। इसी प्रकार चातुरन्त चक्रवर्ती सगर राजा भी इकहत्तर लाख पूर्व वर्ष अगारवास में रह कर मुंडित हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए।
॥ एकसप्ततिस्थानक समवाय समाप्त॥
द्विसप्ततिस्थानक-समवाय ३५३-वावत्तरि सुवन्नकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता।
लवणस्स समुदस्स वावत्तरिं नागसाहस्सीओ बाहिरियं वेलं धारंति। सुपर्णकुमार देवों के बहत्तर लाख आवास (भवन) कहे गये हैं। लवणसमुद्र की बाहरी वेला को बहत्तर हजार नाग धारण करते हैं।
३५४-समणे भगवं महावीरे वावत्तरि वासाइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे।थेरे णं अयलभाया वावत्तरि वासाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे।
श्रमण भगवान् महावीर बहत्तर वर्ष की सर्व आयु भोग कर सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त हो कर सर्व दुःखों से रहित हुए। स्थविर अचलभ्राता ७२ वर्ष की आयु भोग कर सिद्ध, बुद्ध, यावत् सर्व दुःखों से रहित हुए।
३५५-अभितरपुक्खरद्धे णं वावत्तरिं चंदा पभासिंसु वा पभासंति वा, पभासिस्संति वा। [ एवं ] वावत्तरिं सूरिया तविंसु वा, तवंति वा, तविस्संति वा। एगमेगस्स णं रन्नो चाउरंतचक्कवट्टिस्स वावत्तरिपुरवरसाहस्सीओ पण्णत्ताओ।
आभ्यन्तर पुष्करार्ध द्वीप में बहत्तर चन्द्र प्रकाश करते थे, प्रकाश करते हैं और आगे प्रकाश करेंगे।