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[समवायाङ्गसूत्र सप्ततिस्थानक-समवाय ___३४५-समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसराईए मासे वइक्कंते सत्तरिएहि राइदिएहिं सेसेहिं वासावासं पज्जोसवेइ।
श्रमण भगवान् महावीर चातुर्मास प्रमाण वर्षाकाल के बीस दिन अधिक एक मास (पचास दिन) व्यतीत हो जाने पर और सत्तर दिनों के शेष रहने पर वर्षावास करते थे।
विवेचन-श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से लेकर पचास दिन बीतने पर भाद्रपद शुक्ला पंचमी को वर्षावास नियम से एक स्थान पर स्थापित करते थे। उसके पूर्व वसति आदि योग्य आवास के अभाव में दूसरे स्थान का भी आश्रय ले लेते थे।
__ ३४६ -पासे णं अरहा पुरिसादाणीए सत्तरि वासाइं बहुपडिपुनाइं सामनपरियागं पाउणित्ता सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे।
पुरुषादानीय पार्श्व अर्हत् परिपूर्ण सत्तर वर्ष तक श्रमण-पर्याय का पालन करके सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्वदुःखों से रहित हुए।
३४७-वासुपुजे णं अरहा सत्तरि धणूई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। वासुपूज्य अर्हत् सत्तर धनुष ऊंचे थे।
३४८-मोहणिजस्स णं कम्मस्स सत्तरि सागरोवमकोडाकोडीओ अबाहूणिया कम्मट्टिई कम्मनिसेगे पण्णत्ते।
मोहनीय कर्म की अबाधाकाल से रहित सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम-प्रमाण कर्मस्थिति और कर्मनिषेक कहे गये हैं।
विवेचन-मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपमों का होता है। जब तक बंधा हुआ कर्म उदय में आकर बाधा न देवे, उसे अबाधाकाल कहते हैं। अबाधाकाल का सामान्य नियम यह है कि एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम स्थिति के बंधनेवाले कर्म का अबाधाकाल एक सौ वर्ष का होता है। इस नियम के अनुसार सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम स्थिति का बन्ध होने पर उसका अबाधाकाल सत्तर सौ अर्थात् सात हजार वर्ष का होता है। इतने अबाधाकाल को छोड़ कर शेष रही स्थिति कर्मपरमाणुओं की फल देने के योग्य निषेक-रचना होती है। उसका क्रम यह है कि अबाधाकाल पूर्ण होने के अनन्तर प्रथम समय में बहुत कर्म-दलिक निषिक्त होते हैं, दूसरे समय में उससे कम, तीसरे समय में उससे कम निषिक्त होते हैं। इस प्रकार से उत्तरोत्तर कम-कम होते हुए स्थिति के अन्तिम समय में सबसे कम कर्म-दलिक निषिक्त होते हैं। ये निषिक्त कर्म-दलिक अपना-अपना समय आने पर फल देते हुए झड़ जाते हैं। यह व्यवस्था कर्मशास्त्रों के अनुसार है। किन्तु कुछ आन्नार्यों का मत है कि जिस कर्म की जितनी स्थिति बंधती है, उसका अबाधाकाल उससे अतिरिक्त होता है, अतः बंधी हुई पूरी स्थिति के समयों में कर्म-दलिकों का निषेक होता है।
३४९-माहिंदस्स णं देविंदस्स देवरन्नो सत्तरि सामाणियसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। देवेन्द्र देवराज माहेन्द्र के सामानिक देव सत्तर हजार कहे गये हैं।
॥सप्ततिस्थानक समवाय समाप्त।