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त्रिंशत्स्थानक - समवाय ]
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विवेचन - इन मुहूर्तों की गणना सूर्योदय काल से लेकर क्रम से की जाती है। इनके मध्यवर्ती छह मुहूर्त कभी दिन में अन्तर्भूत होते हैं और कभी रात्रि में होते हैं। इसका कारण यह है कि जब ग्रीष्म ऋतु में अठारह मुहूर्त का दिन होता है, तब वे दिन में गिने जाते हैं और जब शीत काल में रात्रि अठारह मुहूर्त की होती है, तब वे रात्रि में गिने जाते हैं ।
१९९ – अरे णं अरहा तीसं धणूइं उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था ।
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अठारहवें अर अर्हन् तीस धनुष ऊंचे थे I
२०० - सहस्सारस्स णं देविंदस्स देवरण्णो तीसं सामाणियसाहस्सीओ पण्णत्ताओ ।
सहस्रार देवेन्द्र देवराज के तीस हजार सामानिक देव कहे गये हैं ।
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२०१ – पासे णं अरहा तीसं वासाइं अगारवासमझे वसित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए । समणे णं भगवं महावीरे तीसं वासाई अगारवासमझे वसित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए ।
पार्श्व अर्हन् तीस वर्ष तक गृह-वास में रहकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए ।
श्रमण भगवान् महावीर तीस वर्ष तक गृह-वास में रहकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए । २०२ – रयणप्पभाए णं पुढवीए तीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता ।
इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तीसं पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता । अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तीस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं तीसं पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता ।
रत्नप्रभा पृथिवी में तीस लाख नारकावास हैं ।
इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति तीस पल्योपम कही गई है। अधस्तन सातवीं पृथिवी में कितनेक नारकियों की स्थिति तीस सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति तीस पल्योपम कही गई है।
२०३ – उवरिमउवरिमगेवेज्जयाणं देवाणं जहण्णेणं तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता । जे देवा उवरिममज्झिमगेवेज्जएसु विमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेण तीस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता । ते णं देवा तीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा, पाणमंति वा, उस्ससंति वा, नीससंति वा । तेसि णं देवाणं तीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पज्जइ ।
संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ।
उपरिम- उपरिम ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति तीस सागरोपम कही गई है। जो देव उपरिममध्यम ग्रैवेयक विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति तीस सागरोपम कही गई है। वे देव तीस अर्धमासों (पन्द्रह मासों) के बाद आन-प्राण और उच्छ्वास - नि:श्वास लेते हैं । उन देवों के तीस हजार वर्ष के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है ।