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अष्टचत्वारिंशत्स्थानक-समवाय]
[११३ कहे गये हैं।
विवेचन-सोलह स्वरों में से ऋ ऋल लू इन चार को छोड़ कर शेष बारह स्वर, कवर्गादि पच्चीस व्यंजन, य र ल व ये चार अन्तःस्थ, श, ष, स, ह ये चार ऊष्म वर्ण और ह ये छियालीस ही अक्षर ब्राह्मी लिपि में होते हैं।
२६८-पभंजणस्स ण वाउकमारिंदस्स छायालीसं भवणावाससयसहस्सा पण्णत्ता। वायुकुमारेन्द्र प्रभंजन के छियालीस लाख भवनावास कहे गये हैं।
॥षट्चत्वारिंशत्स्थानक समवाय समाप्त ॥
सप्तचत्वारिंशत्स्थानक-समवाय २६९-जया णं सूरिए सव्वब्भितरमंडलं उवसंकमित्ता णं चारं चरइ तया णं इहगयस्स मणुस्सस्स सत्तचत्तालीसं जोयणसहस्सेहिं दाहि य तेवढेहिं जोयणसएहिं एक्कवीसाए यसट्ठिभागेहिं जोयणस्स सूरिए चक्खुफासं हव्वमागच्छइ।
जब सूर्य सबसे भीतरी मण्डल में आकर संचार करता है, तब इस भरतक्षेत्रगत मनुष्य को सैंतालीस हजार दो सौ तिरेसठ योजन और एक योजन के साठ भागों में इक्कीस भाग की दूरी से सूर्य दृष्टिगोचर होता है।
___ २७०-थेरे णं अग्गभूई सत्तचत्तालीसं वासाइं अगारमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए।
अग्निभूति स्थविर सैंतालीस वर्ष गृहवास में रह कर मुंडित हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए।
॥सप्तचत्वारिंशत्स्थानक समवाय समाप्त।
अष्टचत्वारिंशत्स्थानक-समवाय २७१-एगेमेगस्स णं रन्नो चाउरंतचक्कवट्टिस्स अडयालीसं पट्टणसहस्सा पण्णत्ता। प्रत्येक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा के अड़तालीस हजार पट्टण कहे गये हैं। २७२-धम्मस्स णं अरहओ अडयालीसं गणा, अडयालीसं गणहरा होत्था। धर्म अर्हत् के अड़तालीस गण और अडतालीस गणधर थे। २७३ -सूरमंडले ण अडयालीसं एकसट्ठिभागे जोयणस्स विक्खंभेणं पण्णत्ते। सूर्यमण्डल एक योजन के इकसठ भागों में से अड़तालीस भाग-प्रमाण विस्तार वाला कहा गया
॥अष्टचत्वारिंशत्स्थानक समवाय समाप्त॥