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द्विपञ्चाशत्स्थानक - समवाय ]
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२७९ – लंतए कप्पे पन्नासं विमाणावाससहस्सा पण्णत्ता । सव्वाओ णं तिमिस्सगुहाखंडगप्पवायगुहाओ पन्नासं पन्नासं जोयणाइं आयामेणं पण्णत्ताओ । सव्वे वि णं कंचणगपव्वया सिहरतले पन्नासं पन्नासं जोयणाइं विक्खंभेणं पण्णत्ता ।
लान्तक कल्प में पचास हजार विमानावास कहे गये हैं। सभी तिमिस्र गुफाएं और खण्ड-प्रपात गुफाएं पचास-पचास योजन लम्बी कही गई हैं। सभी कांचन पर्वत शिखरतल पर पचास-पचास योजन विस्तार वाले कहे गये हैं ।
॥ पञ्चाशत्स्थानक समवाय समाप्त ॥
एकपञ्चाशत्स्थानक - समवाय
२८० - नवहं बंभचेराणं एकावन्नं उद्देसणकाला पण्णत्ता । नवों ब्रह्मचर्यों के इक्यावन उद्देशन काल कहे गये हैं ।
विवेचन - आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के शस्त्रपरिज्ञा आदि अध्ययन ब्रह्मचर्य के नाम से प्रख्यात हैं, उनके अध्ययन इक्यावन हैं, अतः उनके उद्देशनकाल भी इक्यावन ही कहे गये हैं ।
२८१ - चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररन्नो सभा सुधम्मा एकावन्नखंभसयसंनिविट्ठा पण्णत्ता । एवं चेव बलिस्स वि ।
असुरेन्द्र असुरराज चमर की सुधर्मा सभा इक्यावन सौ (५१००) खम्भों से रचित है। इसी प्रकार बलि की सभा भी जानना चाहिए।
२८२ - सुप्पभे णं बलदेवे एकावन्नं वाससयसहस्साइं परमाउं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे।
सुप्रभ बलदेव इक्यावन हजार वर्ष की परमायु का पालन कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए ।
२८३–दंसणावरण-नामाणं दोण्हं कम्माणं एकावन्नं उत्तरकम्मपगडीओ पण्णत्ताओ। दर्शनावरण और नाम कर्म इन दोनों कर्मों की (९ + ४२ = ५१ ) इक्यावन उत्तर कर्मप्रकृतियां कही
गई हैं।
॥ एकपञ्चाशत्स्थानक समवाय समाप्त ॥
द्विपञ्चाशत्स्थानक - समवाय
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२८४ - मोहणिज्जस्स णं कम्मस्स वावन्नं नामधेज्जा पण्णत्ता । तं जहा – कोहे कोवे रोसे दोसे अखमा संजलणे कलहे चंडिक्के भंडणे विवाए १०, माणे मदे दप्पे थंभे अत्तक्कोसे गव्वे परपरिवार अवक्कोसे (परिभवे ) उन्नए २०, उन्नामे माया उवही नियडी वलए गहणे णूमे कक्के कुरुए दंभे ३०, कूडे जिम्हे किव्विसे अणायरणया गृहणया वंचणया पलिकुंचणया सातिजोगे