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[समवायाङ्गसूत्र द्विषष्टिस्थानक-समवाय ३१७-पंच संवच्छरिए णं जुगे वासद्धिं पुन्निमाओ वास४ि अमावसओ पण्णत्ताओ। पंचसांवत्सरिक युग में बासठ पूर्णिमाएं और बासठ अमावस्याएं कही गई हैं।
विवेचन-चन्द्रमास के अनुसार पाँच वर्ष के काल को युग कहते हैं। इस एक युग में दो मास अधिक होते हैं। इसलिए दो पूर्णिमा और अमावस्या भी अधिक होती हैं। इसे ही ध्यान में रखकर एक युग में वासठ पूर्णिमाएं और वासठ अमावस्याएं कही गई हैं।
३१८-वासुपुजस्स णं अरहओ वासटुिं गणा, वासटुिं गणहरा होत्था। वासुपूज्य अर्हन् के वासठ गण और वासठ गणधर कहे गये हैं।
३१९-सुक्कपक्खस्स णं चंदे वासर्टि भागे दिवसे दिवसे परिवड्डइ। ते चेव बहुलपक्खे दिवसे-दिवसे परिहायइ।
शुक्लपक्ष में चन्द्रमा दिवस-दिवस (प्रतिदिन) बासठवें भाग प्रमाण एक-एक कला से बढ़ता और कृष्ण पक्ष में प्रतिदिन इतना ही घटता है।
३२०–सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु पढमे पत्थडे पढमावलियाए एगमेगाए दिसाए वासर्टि विमाणा पण्णत्ता। सव्वे वेमाणियाणं वासटुिं विमाणपत्थडा पत्थडग्गेणं पण्णत्ता।
सौधर्म और ईशान इन दो कल्पों में पहले प्रस्तट में पहली आवलिका (श्रेणी) में एक-एक दिशा में वासठ-वासठ विमानावास कहे गये हैं। सभी वैमानिक विमान-प्रस्तट प्रस्तटों की गणना से वासठ कहे गये हैं।
॥ द्विषष्टिस्थानक समवाय समाप्त ॥
त्रिषष्टिस्थानक-समवाय ३२१-उसभे णं अरहा कोसलिए तेसद्धिं पुव्वसयसहस्साई महारायमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए।
कौशलिक ऋषभ अर्हन् तिरेसठ लाख पूर्व वर्ष तक महाराज के मध्य में रहकर अर्थात् राजा के पद पर आसीन रहकर फिर मुंडित हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए। ___३२२-हरिवास-रम्मयवासेसु मणुस्सा तेवट्ठिए राइंदिएहिं संपत्तजोव्वणा भवंति।
हरिवर्ष और रम्यक्वर्ष में मनुष्य तिरेसठ रात-दिनों में पूर्ण यौवन को प्राप्त हो जाते हैं, अर्थात् उन्हें माता-पिता द्वारा पालन की अपेक्षा नहीं रहती।
३२३-निसढे णं पव्वए तेवढेि सूरोदया पण्णत्ता। एवं नीलवंते वि।
निषध पर्वत पर तिरेसठ सूर्योदय कहे गये हैं। इसी प्रकार नीलवन्त पर्वत पर भी तिरेसठ सूर्योदय कहे गये हैं।