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द्वात्रिंशत्स्थानक-समवाय] की दूरी से वह सूर्य दृष्टिगोचर होता है। अभिवर्धित मास में रात्रि-दिवस की गणना से कुछ अधिक इकतीस रात-दिन कहे गये हैं। सूर्यमास रात्रि-दिवस की गणना से कुछ विशेष हीन इकतीस रात-दिन का कहा गया है।
२०७-इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एकत्तीसं पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता।अहे सत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एक्कत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं एक्कत्तीसंपलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता।सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं एक्कत्तीसं पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता।
इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति इकतीस पल्योपम है। अधस्तन सातवीं पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति इकतीस सागरोपम की है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति इकतीस पल्योपम की है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति इकतीस पल्योपम कही गई है।
२०८-विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजिआणं देवाणं जहण्णेणं एकत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पत्ता। जे देवा उवरिम-उवरिमगेवेज्जयविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एकत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। ते णं देवा एक्कत्तीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा, पाणमंति वा, उस्ससंति वा, निस्ससंति वा।तेसि णं देवाणं एक्कत्तीसं वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुष्पजइ।
__संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे एक्कत्तीसेहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति।
विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवों की जघन्य स्थिति इकतीस सागरोपम कही गई है। जो देव उपरिम-उपरिम ग्रैवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति इकतीस. सागरोपम कही गई है। वे देव इकतीस अर्धमासों (साढ़े पन्द्रह मासों) के बाद आन-प्राण या उच्छ्वास निःश्वास लेते हैं। उन देवों के इकतीस हजार वर्ष के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है।
कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो इकतीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दु:खों का अन्त करेंगे।
॥ एकत्रिंशत्स्थानक समवाय समाप्त ॥
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द्वात्रिंशतस्थानक-समवाय बत्तीसं जोगसंगहा पण्णत्ता। तं जहाआलोयण १ निरवलावे २, आवईसु दढधम्मया ३। अणिस्सिओवहाणे ४.य, सिक्खा ५, निप्पडिकम्मया ६ ॥१॥ अण्णायया अलोभे ८, य, तितिक्खा ९, अज्जवे १०, सुई ११ । सम्मदिट्ठी १२, समाही १३,य, आयारे १४, विणओवए १५ ॥२॥