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पञ्चत्रिंशत्स्थानक-समवाय]
[१०५ २५. अनपनीत्व-काल, कारक, लिंग-व्यत्यय आदि व्याकरण के दोषों से रहित होना। २६. उत्पादिताच्छिन्न कौतूहलत्व-अपने विषय में श्रोताजनों को लागतार कौतूहल उत्पन्न
करने वाले होना। २७. अद्भुतत्व-आश्चर्यकारक अद्भुत नवीनता-प्रदर्शक वचन होना। २८. अनतिविलम्बित्व-अतिविलम्ब से रहित धाराप्रवाही बोलना। २९. विभ्रम, विक्षेप-किलिकिञ्चितादि विमुक्तत्व-मन की भ्रान्ति, विक्षेप और रोष, भयादि
से रहित होना। ३०. अनेक जातिसंश्रयाद्विचित्रत्व- अनेक प्रकार से वर्णनीय वस्तु-स्वरूप के वर्णन करने
वाले वचन होना। ३१. आहितविशेषत्व-सामान्य वचनों से कुछ विशेषता-युक्त वचन होना। ३२. साकारत्व-पृथक्-पृथक् वर्ण, पद, वाक्य के आकार से युक्त वचन होना। ३३. सत्वपरिगृहीतत्व-साहस से परिपूर्ण वचन होना। ३४. अपरिखेदित्व-खेद-खिन्नता से रहित वचन होना।
३५. अव्युच्छेदित्व-विवक्षित अर्थ की सम्यक् सिद्धि करने वाले वचन होना। • बोले जाने वाले वचन उक्त पैंतीस गुणों से युक्त होने चाहिए।
२२३-कुंथू णं अरहा पणतीसं धणूई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। दत्ते णं वासुदेवे पणतीसं धणुइं उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। नंदणे णं बलदेवे पणतीसं धणूई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था।
____ कुन्थु अर्हन् पैंतीस धनुष ऊंचे थे। दत्त वासुदेव पैंतीस धनुष ऊंचे थे। नन्दन बलदेव पैंतीस धनुष ऊंचे थे।
२२४-सोहम्मे कप्पे सुहम्माए सभाए माणवए चेइयक्खंभे हेट्ठा उवरिं च अद्धतेरस जोयणाणि वजेत्ता मज्झे पण्णतीसं जोयणेसु वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु जिणसकहाओ पण्णत्ताओ।
सौधर्म कल्प में सुधर्मा सभा के माणवक चैत्यस्तम्भ में नीचे और ऊपर साढ़े बारह-साढ़े बारह योजन छोड़ कर मध्यवर्ती पैंतीस योजनों में, वज्रमय, गोल वर्तुलाकार पेटियों में जिनों की (मनुष्य-लोक में मुक्त हुए तीर्थंकरों की) अस्थियां रखी हुई हैं।
२२५-बितिय-चउत्थीसु दोसु पुढवीए पणतीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता।
दूसरी और चौथी पृथिवियों में (दोनों के मिला कर) पैंतीस (२५+१०=३५) लाख नारकावास कहे गये हैं।
॥ पंचत्रिंशत्स्थानक समवाय समाप्त।