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अष्टत्रिंशत्स्थानक-समवाय]
[१०७ २३१ -हेमवय-हेरण्णवइयाओ णं जीवाओ सत्ततीसं जोयणसहस्साई छच्च चउसत्तरे जोयणसए सोलसयएगूणवीसइभाए जोयणस्स किंचिविसेसूणाओ आयामेणं पण्णत्ताओ।सव्वासु णं विजय-वैजयंत-जयंत-अपरिजयासु रायहाणीसु पागारा सत्ततीसं सत्ततीसं जोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता।
हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र की जीवाएं सैंतीस हजार छह सौ चौहत्तर योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से कुछ कम सोलह भाग लम्बी कही गई हैं।
२३२-खुड्डियाए विमाणपविभत्तीए पढमे वग्गे सत्ततीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता। क्षुद्रिका विमानप्रविभक्ति नामक कालिक श्रुत के प्रथम वर्ग में सैंतीस उद्देशन काल कहे गये हैं।
२३३ -कत्तियबहुलसत्तमीए णं सूरिए सत्ततीसंगुलियं पोरिसीछायं निव्वत्तइत्ता णं चारं चरइ। कार्तिक कृष्णा सप्तमी के दिन सूर्य सैंतीस अंगुल की पौरुषी छाया करता हुआ संचार करता है।
॥ सप्तत्रिंशत्स्थानक समवाय समाप्त॥
अष्टत्रिंशत्स्थानक-समवाय २३४-पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स अट्ठत्तीसं अज्जिआसाहस्सीओ उक्कोसिया अज्जियासंपया होत्था।
पुरुषादानीय पार्श्व अर्हत् के संघ में अड़तीस हजार आर्यिकाओं की उत्कृष्ट आर्यिका-सम्पदा थी।
२३५–हेमवय-एरण्णवइयाणं जीवाणं धणुपिढे अट्ठत्तीसंजोयणसहस्साइं सत्त य चत्ताले जोयणसए दसएगूणवीसइभागे जोयणस्स किंचि विसेसूणा परिक्खेवेणं पण्णत्ते। अत्थस्स णं पव्वयरण्णा बितिए कंडे अट्ठत्तीसं जोयणसहस्साई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था।
हैमवत और ऐरण्यवत क्षेत्रों की जीवाओं का धनुःपृष्ठ अड़तीस हजार सात सौ चालीस योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से दश भाग से कुछ कम परिक्षेप वाला कहा गया है। जहाँ सूर्य अस्त होता है, उस पर्वतराज मेरु का दूसरा कांड अड़तीस हजार योजन ऊंचा है।
२३६-खुड्डियाए णं विमाणपविभत्तीए बितिए वग्गे अट्ठत्तीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता। क्षुद्रिका विमानप्रविभक्ति नामक कालिक श्रुत के द्वितीय वर्ग में अड़तीस उद्देशन काल कहे गये
॥अष्टत्रिंशत्स्थानक समवाय समाप्त।