________________
१०४]
[समवायाङ्गसूत्र पञ्चत्रिंशत्स्थानक-समवाय २२२-पणतीसं सच्चवयणाइसेसा पण्णत्ता। पैंतीस सत्यवचन के अतिशय कहे गये हैं।
विवेचन-मूल सूत्र में इन पैंतीस वचनातिशयों के नामों का उल्लेख नहीं है और संस्कृत टीकाकार लिखते हैं कि ये आगम में कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुए हैं। उन्होंने ग्रन्थान्तरों में प्रतिपादित वचन के पैंतीस गुणों का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार हैं
१. संस्कारवत्त्व-वचनों का व्याकरण-संस्कार से युक्त होना। २. उदात्तत्त्व-उच्च स्वर से परिपूर्ण होना। ३. उपचारोपेतत्व-ग्रामीणता से रहित होना। ४. गम्भीरशब्दत्व-मेघ के समान गम्भीर शब्दों से युक्त होना। ५. अनुनादित्व-प्रत्येक शब्द के यथार्थ उच्चारण से युक्त होना। ६. दक्षिणत्व-वचनों का सरलता-युक्त होना। ७. उपनीतरागत्व- यथोचित राग-रागिणी से युक्त होना।
ये सात अतिशय शब्द-सौन्दर्य की अपेक्षा से जानना चाहिए। आगे कहे जाने वाले
अतिशय अर्थ-गौरव की अपेक्षा रखते हैं। ८. महार्थत्व-वचनों का महान् अर्थवाला होना। ९. अव्याहतपौर्वापर्यत्व- पूर्वापर अविरोधी वाक्य वाला होना। १०. शिष्टत्व-वक्ता की शिष्टता का सूचक होना। ११. असन्दिग्धत्व-सन्देह-रहित निश्चित अर्थ के प्रतिपादक होना। १२. अपहृतान्योत्तरत्व-अन्य पुरुष के दूषणों को दूर करने वाला होना। १३. हृदयग्राहित्व-श्रोता के हृदय-ग्राही-मनोहर वचन होना। १४. देश-कालाव्ययीतत्व-देश-काल के अनुकूल अवसरोचित वचन होना। १५. तत्त्वानुरूपत्व-विवक्षित वस्तुस्वरूप के अनुरूप वचन होना। १६. अप्रकीर्णप्रसृतत्व-निरर्थक विस्तार से रहित सुसम्बद्ध वचन होना। १७. अन्योन्यप्रगृहीत- परस्पर अपेक्षा रखने वाले पदों और वाक्यों से युक्त होना। १८. अभिजातत्व-वक्ता की कुलीनता और शालीनता के सूचक होना। १९. अतिस्निग्धमधुरत्व- अत्यन्त स्नेह से भरे हुए मधुरता-मिष्टता युक्त होना। २०. अपरमर्मावेधित्व-दूसरे के मर्म-वेधी न होना। २१. अर्थधर्माभ्यासानपेतत्व- अर्थ और धर्म के अनुकूल होना। २२. उदारत्व-तुच्छता-रहित और उदारता-युक्त होना। २३. परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तत्व- पराई-निन्दा और अपनी प्रशंसा से रहित होना। २४. उपगतश्लाघत्व-जिन्हें सुन कर लोग प्रशंसा करें, ऐसे वचन होना।