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चतुस्त्रिंशत्स्थानक - समवाय ]
अपनी-अपनी हितकर, शिवकर सुखद भाषारूप से परिणत हो जाती है।
२४. पूर्वबद्ध वैर वाले भी (मनुष्य) देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, गरुड, गन्धर्व और महोरग भी अरहन्तों के पादमूल मे ( परस्पर वैर भूलकर) प्रशान्त चित्त होकर हर्षित मन से धर्म श्रवण करते हैं ।
२५. अन्यतीर्थिक (पस्मतावलम्बी) प्रावचनिक (व्याख्यानदाता) पुरुष भी आकर भगवान् की वन्दना करते हैं।
२६. वे वादी लोग भी अरहन्त के पादमूल में वचन - रहित (निरुत्तर) हो जाते हैं।
२७. जहाँ-जहाँ भी अरहन्त भगवन्त विहार करते हैं, वहाँ-वहाँ पच्चीस योजन तक ईति-भीति नहीं होती है।
२८. मनुष्यों को मारने वाली मारी (हैजा - प्लेग आदि भयंकर बीमारी ) नहीं होती है।
२९. स्वचक्र (अपने राज्य की सेना ) का भय नहीं होता ।
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३०. परचक्र (शत्रु की सेना) का भय नहीं होता ।
३१. अतिवृष्टि (भारी जलवर्षा) नहीं होती ।
३२. अनावृष्टि नहीं होती, अर्थात् सूखा नहीं पड़ता । ३३. दुर्भिक्ष (दुष्काल) नहीं होता ।
३४. भगवान् के विहार से पूर्व उत्पन्न हुई व्याधियाँ भी शीघ्र ही शान्त हो जाती हैं और रक्तवर्षा आदि उत्पात नहीं होते हैं ।
विवेचन - उपर्युक्त चौतीस अतिशयों में से द्वितीय आदि चार अतिशय तीर्थंकरों के जन्म से ही होते हैं। छठे आकाश-गत चक्र से लेकर बीस तक के अतिशय घातिकर्मचतुष्क के क्षय होने पर होते हैं और शेष देवकृत अतिशय जानना चाहिए। दिगम्बर परम्परा में प्रायः ये ही अतिशय कुछ पाठ-भेद से मिलते हैं, वहाँ जन्म-जात दस अतिशय, केवलज्ञान-जनित दश अतिशय और देवकृत चौदह अतिशय कहे गये हैं 1
२२० - जम्बुद्दीवे णं दीवे चउत्तीसं चक्कवट्टिविजया पण्णत्ता । तं जहा - बत्तीसं महाविदेहे, दो भरहे एरवए । जम्बुद्दीवे णं दीवे चोत्तीसं दीहवेयड्डा पण्णत्ता । जंबुद्दीवे णं दीवे उक्कोसपर चोत्तीस तित्थंकरा समुप्पज्जंति ।
जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप में चक्रवर्ती के विजयक्षेत्र चौतीस कहे गये हैं । जैसे - महाविदेह में बत्तीस, भरत क्षेत्र एक और ऐरवत क्षेत्र एक । [इसी प्रकार ] जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप में चौतीस दीर्घ वैताढ्य कहे गये हैं। जम्बूद्वीप नामक द्वीप में उत्कृष्ट रूप से चौतीस तीर्थंकर [ एक साथ ] उत्पन्न होते हैं।
२२१ – चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो चोत्तीसं भवणावाससयसहस्सा पण्णत्ता । पढम- पंचम - छट्ठी-सत्तमासु चउसु पुढवीसु चोत्तीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता ।
असुरेन्द्र असुरराज चमर के चौतीस लाख भवनावास कहे गये हैं । पहिली, पाँचवीं, छठी और सातवीं, इन चार पृथिवियों में चौतीस लाख (३०+३+ पाँच कम एक लाख और ५ = ३४) नारकावास कहे गये हैं ।
॥ चतुस्त्रिंशत्स्थानक समवाय समाप्त ॥