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चतुस्त्रिंशत्स्थानक - समवाय ]
सागरोपम कही गई है। जो देव सर्वार्थसिद्ध नामक पाँचवें अनुत्तर महाविमान में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थिति पूरे तेतीस सागरापम कही गई है। वे देव तेतीस अर्धमासों (साढ़े सोलह मासों ) के बाद आन-प्राण अथवा उच्छ्वास- निःश्वास लेते हैं। उन देवों के तेतीस हजार वर्षों के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है।
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कितनेक भव्यसिद्धिक जीव तेतीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।
यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि सर्वार्थसिद्ध महाविमान के देव तो नियम से एक भव ग्रहण करके मुक्त होते हैं और विजयादि शेष चार विमानों के देवों में से कोई एक भव ग्रहण करके मुक्त होता है और कोई दो मनुष्यभव ग्रहण करके मुक्त होता है।
॥ त्रयस्त्रिंशत्स्थानक समवाय समाप्त ॥
चतुस्त्रिंशत्स्थानक- - समवाय
२१९ –चोत्तीसं बुद्धाइसेसा पण्णत्ता, तं जहा - अवट्ठिए केस-मंसु-रोम - नहे १, निरामया निरुवलेवा गायलट्ठी २, गोक्खीरपंडुरे मंससोएिण ३, पउमुप्पलगंधिए उस्सासनिस्सासे ४, पच्छन्ने आहार- नीहारे अदिस्से मंसचक्खुणा ५, आगासगयं चक्कं ६, आगासगयं छत्तं ७, आगासगयाओ सेयवरचामराओ ८, आगासफालिआमयं सपायपीढं सीहासणं ९, आगासगओ कुडभीसहस्सपरिमंडिआभिराओ इंदज्झओ पुरओ गच्छइ १०, जत्थ जत्थ वि य णं अरहंता भगवंतो चिट्ठेति वा निसीयंति वा तत्थ तत्थ वि य णं जक्खा देवा संछन्नपत्त - पुप्फ-पल्लवसमाउलो सच्छत्तो सज्झओ सघंटो सपडागो असोगवरपायवो अभिसंजायइ ११, ईसिं पिट्टओ मउडठाणंमि तेयमंडलं अभिसंजाइ, अंधकारे वि य णं दस दिसाओ पभासेइ १२, बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे १३, अहोसिरा कंटया भवंति १४, उउविवरीया सुहफासा भवंति १५, सीयलेणं सुहफासेणं सुरभिणा मारुएणं जोयणपरिमंडल सव्वओ समंता-संपमज्जिज्जइ १६, जुत्तफुसिएणं मेहेण य निहयरयरेणूयं किज्जइ १७, जल-थलभासुरपभूतेणं विंटट्ठाइणा दसद्धवण्णेणं कुसुमेणं जाणुस्सेहप्पमाणमित् पुप्फोवयारे किज्ज १८, अमणुण्णाणं सद्द-फरिस - रस- रूव-गंधाणं अवकरिसो भवइ १९, मणुण्णाणं सद्द-फरिस - रस- रूव-गंधाणं पाउब्भावो भवइ २०, पच्चाहरओ वि य णं हिययगमणीओ जोयनीहारी सरो २१, भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ २२, सा वि य णं अर्द्धमागही भासा भासिज्जमाणी तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं दुप्पय-चउप्पय-मिय-पसुपक्खि - सरीसिवाणं अप्पणो हिय-सिव - सुहय - भासत्ताए परिणमइ २३, पुव्वबद्धवेरा वि य णं देवासुर-नगा-सुवण्ण-जक्ख- रक्खस - किंनर - किंपुरिस - गरुल- गंधव्व-महोरगा अरहओ पायमूले पसंतचित्तमाणसा धम्मं निसामंत २४, अण्णउत्थियपावयिणिया वि य णं आगया वंदति २५, आगया समाणा अरहओ पायमूले निप्पलिवयणा हवंति २६, जओ जओ वि य णं अरहंतो भगवंतो विहरंति तओ तओ वि य णं जोयणपणवीसाएणं ईती न भवइ २७, मारी न भवइ २८, सचक्कं न भवइ २९, परचक्कं न भवइ ३०, अइवुट्ठी न भवइ ३१, अणावुट्ठी न भवइ ३२, दुब्भिक्खं न भवइ