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[समवायाङ्गसूत्र धिइमई १६, य, संवेगे १७ पणिही १८, सुविहि १९, संवरे २० । अत्तदोसोवसंहारे २१, सव्वकामविरत्तया २२ ॥३॥ पच्चक्खाणे २३-२४, विउस्सग्गे २५, अप्पमादे २६ लवाववे २७ । झाणसंवरजोगे २८, य, उदए मारणंतिए २९ ॥४॥ संगाणं च परिणाया ३०, पायच्छित्तकरणे वि य ३१ ।
आराहणा य मरणंते ३२, बत्तीसं जोगसंगहा ॥५॥ बत्तीस योग-संग्रह (मोक्ष-साधक मन, वचन, काय के प्रशस्त व्यापार) कहे गये हैं। इनके द्वारा मोक्ष की साधना सुचारु रूप से सम्पन्न होती है। वे योग इस प्रकार हैं
१. आलोचना-व्रत-शुद्धि के लिए शिष्य अपने दोषों की गुरु के आगे आलोचना करे। २. निरपलाप-शिष्य-कथित दोषों को आचार्य किसी के आगे न कहे। ३. आपत्सुदृढधर्मता-आपत्तियों के आने पर साधक अपने धर्म में दृढ रहे। ४. अनिश्रितोपधान-दूसरे के आश्रय की अपेक्षा न करके तपश्चरण करे। ५. शिक्षा-सूत्र और अर्थ का पठन-पाठन एवं अभ्यास करे। ६.निष्प्रतिकर्मता-शरीर की सजावट-शृंगारादि न करे। ७. अज्ञातता-यश, ख्याति, पूजादि के लिए अपने तप को प्रकट न करे, अज्ञात रखे। ८. अलोभता- भक्त-पान एवं वस्त्र, पात्र आदि में निर्लोभ प्रवृत्ति रखे। ९. तितिक्षा- भूख, प्यास आदि परीषहों को सहन करे। १०. आर्जव- अपने व्यवहार को निश्छल और सरल रखे। ११. शुचि-सत्य बोलने और संयम-पालन में शुद्धि रखे। १२. सम्यग्दृष्टि – सम्यग्दर्शन को शंका-कांक्षादि दोषों को दूर करते हुए शुद्ध रखे। १३. समाधि-चित्त को संकल्प-विकल्पों से रहित शान्त रखे। १४. आचारोपगत-अपने आचरण को मायाचार रहित रखे। १५. विनयोपगत-विनय-युक्त रहे. अभिमान न करे। १६. धृतिमति-अपनी बुद्धि में धैर्य रखे, दीनता न करे। १७. संवेग-संसार से भयभीत रहे और निरन्तर मोक्ष की अभिलाषा रखे। १८. प्रणिधि-हृदय में माया शल्य न रखे। १९. सुविधि-अपने चारित्र का विधि-पूर्वक सत्-अनुष्ठान अर्थात् सम्यक् परिपालन करे। २०. संवर-कर्मों के आने के द्वारों (कारणों) का संवरण अर्थात् निरोध करे। २१. आत्मदोषोपसंहार-अपने दोषों का निरोध करे-दोष न लगने दे। २२. सर्वकामविरक्तता-सर्व विषयों से विरक्त रहे। २३. मूलगुण-प्रत्याख्यान- अहिंसादि मूलगुण-विषयक प्रत्याख्यान करे। २४. उत्तरगुण-प्रत्याख्यान- इन्द्रिय-निरोध आदि उत्तर गुण-विषयक प्रत्याख्यान करे। २५. व्युत्सर्ग-वस्त्र-पात्र आदि बाहरी उपधि और मूर्छा आदि आभ्यन्तर उपधि का परित्याग