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त्रिंशत्स्थानक-समवाय]
[८९ का बन्ध करता है ॥१८॥ वह पन्द्रहवां मोहनीय स्थान है।
(१६)जो राष्ट्र के नायक का या निगम (विशाल नगर) के नेता का अथवा, महायशस्वी सेठ का घात करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है ॥१९ ।। यह सोलहवाँ मोहनीय स्थान है।
(१७) जो बहुत जनों के नेता का, दीपक से समान उनके मार्ग-दर्शक का और इसी प्रकार के अनेक जनों के उपकारी पुरुष का घात करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है॥२०॥ यह सत्तरहवाँ मोहनीय स्थान है।
(१८) जो दीक्षा लेने के लिए उपस्थित या उद्यत पुरुष को, भोगों से विरक्त जन को, संयमी मनुष्य को या परम तपस्वी व्यक्ति को अनेक प्रकारों से भड़का कर धर्म से भ्रष्ट करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है ॥२१॥ यह अठारहवाँ मोहनीय स्थान है।
(१९)जो अज्ञानी पुरुष अनन्तज्ञानी अनन्तदर्शी जिनेन्द्रों का अवर्णवाद करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है ॥२२ ॥ यह उन्नीसवां मोहनीय स्थान है।
(२०) जो दुष्ट पुरुष न्याय-युक्त मोक्षमार्ग का अपकार करता है और बहुत जनों को उससे च्युत करता है, तथा मोक्षमार्ग की निन्दा करता हुआ अपने आपको उससे भावित करता है, अर्थात् उन दुष्ट विचारों से लिप्त करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है ॥२२॥ यह बीसवाँ मोहनीय स्थान है।
(२१) जो अज्ञानी पुरुष, जिन-जिन आचार्यों और उपाध्यायों से श्रुत और विनय धर्म को प्राप्त करता है, उन्हीं की यदि निन्दा करता है, अर्थात् ये कुछ नहीं जानते, ये स्वयं चारित्र से भ्रष्ट हैं, इत्यादि रूप से उनकी बदनामी करता है, तो वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है ॥२४॥यह इक्कीसवाँ मोहनीय स्थान है।
(२२) जो आचार्य, उपाध्याय एवं अपने उपकारक जनों को सम्यक् प्रकार से सन्तृप्त नहीं करता है अर्थात् सम्यक् प्रकार से उनकी सेवा नहीं करता है, पूजा और सन्मान नहीं करता है, प्रत्युत अभिमान करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है ॥२५॥ यह बाईसवाँ मोहनीय स्थान है।
(२३) अबहुश्रुत (अल्प श्रुत का धारक) जो पुरुष अपने को बड़ा शास्त्रज्ञानी कहता है, स्वाध्यायवादी और शास्त्र-पाठक बतलाता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है ॥२६॥ यह तेईसवां मोहनीय स्थान है।
(२४)जो अतपस्वी (तपस्या-रहित) होकर के भी अपने को महातपस्वी कहता है, वह सब से महा चोर (भाव-चोर होने के कारण) महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है ॥२७॥ यह चौबीसवां मोहनीय स्थान है।
(२५) उपकार (सेवा-शुश्रूषा) के लिए किसी रोगी, आचार्य या साधु के आने पर स्वयं समर्थ होते हुए भी जो 'यह मेरा कुछ भी कार्य नहीं करता है', इस अभिप्राय से उसकी सेवा आदि न कर अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता है, इस मायाचार में पटु, वह शठ (धूर्त) कलुषितचित्त होकर (भवान्तर में) अपनी अबोधि (रत्नत्रयधर्म की अप्राप्ति) का कारण बनता हुआ महामोहनीय कर्म का बन्ध करता