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[समवायाङ्गसूत्र (८) जो अपने किये ऋषिघात आदि घोर दुष्कर्म को दूसरे पर लादता है, अथवा अन्य व्यक्ति के द्वारा किये गये दुष्कर्म को किसी दूसरे पर आरोपित करता है कि तुमने यह दुष्कर्म किया है, वह महामोनीय कर्म का बन्ध करता है। यह आठवाँ मोहनीय स्थान है।
(९) यह बात असत्य है' ऐसा जानता हुआ भी जो सभा में सत्यामृषा (जिसमें सत्यांश कम है ओर असत्याशं अधिक है ऐसी) भाषा बोलता है और लोगों से सदा कलह करता रहता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। यह नौवां मोहनीय स्थान है।
(१०) राजा का जो मंत्री-अमात्य-अपने ही राजा की दाराओं (स्त्रियों) को, अथवा धन आने के द्वारों का विध्वंस करके और अनेक सामन्त आदि को विक्षुब्ध करके राजा को अनधिकारी करके राज्य पर, रानियों पर या राज्य के धन-आगमन के द्वारों पर स्वयं अधिकार जमा लेता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। यह दशवाँ मोहनीय स्थान है।
(११) जिसका सर्वस्व हरण कर लिया है, वह व्यक्ति भेंट आदि लेकर और दीन वचन बोलकर अनुकूल बनाने के लिये यदि किसी के समीप आता है, ऐसे पुरुष के लिए जो प्रतिकूल वचन बोलकर उसके भोग-उपभोग के साधनों को विनष्ट करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। यह ग्यारहवाँ मोहनीय स्थान है।
(१२) जो पुरुष स्वयं अकुमार (विवाहित) होते हुए भी "मैं कुमार-अविवाहित हूँ", ऐसा कहता है और स्त्रियों में गृद्ध (आसक्त) और उनके अधीन रहता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। जो कोई परंप स्वयं अब्रह्मचारी होते हए भी 'मैं ब्रह्मचारी हैं। ऐसा बोलता है. वह बैलों के मध्य में गधे के समान विस्वर (बेसुरा) नाद (शब्द) करता-रेंकता हुआ-महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। तथा उक्त प्रकार से जो अज्ञानी पुरुष अपना ही अहित करनेवाले मायाचार-युक्त बहुत अधिक असत्य वचन बोलता है और स्त्रियों के विषयों में आसक्त रहता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। यह बारहवाँ मोहनीय स्थान है।
(१३) जो राजा आदि की ख्याति से अर्थात् 'यह उस राजा का या मंत्री आदि का सगा सम्बन्धी है' ऐसी प्रसिद्धि से अपना निर्वाह करता हो अथवा आजीविका के लिए जिस राजा के आश्रय में अपने को समर्पित करता है अर्थात् उसकी सेवा करता है और फिर उसी के धन में लुब्ध होता है, वह पुरुष महामोहनीय कर्म का बन्धं करता है ॥१५॥ यह तेरहवाँ मोहनीय स्थान है।
(१४) किसी ऐश्वर्यशाली पुरुष के द्वारा अथवा जन-समूह के द्वारा कोई अनीश्वर (ऐश्वर्य रहित निर्धन) पुरुष ऐश्वर्यशाली बना दिया गया, तब उस सम्पत्ति-विहीन पुरुष के अतुल (अपार) लक्ष्मी हो गई। यदि वह ईर्ष्या द्वेष से प्रेरित होकर, कलुषता-युक्त चित्त से उस उपकारी पुरुष के या जन-समूह के भोग-उपभोगादि में अन्तराय या व्यवच्छेद डालने का विचार करता है, तो वह महा-मोहनीय कर्म का बन्ध करता है ॥१६-१७॥ यह चौदहवाँ महामोहनीय स्थान है।
(१५) जैसे सर्पिणी (नागिन) अपने ही अंडों को खा जाती है, उसी प्रकार जो पुरुष अपना ही भला करने वाले स्वामी का, सेनापति का अथवा धर्मपाठक का विनाश करता है, वह महामोहनीय कर्म