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[समवायाङ्गसूत्र समचतुरस्रसंस्थाननाम,७ वैक्रियकशरीराङ्गोपाङ्गनाम, ८ वर्णनाम, ९ गन्धनाम, १० रसनाम, ११ स्पर्शनाम, १२ देवानुपूर्वीनाम, १३ अगुरुलघुनाम, १४ उपघातनाम, १५ पराघातनाम, १६ उच्छ्वासनाम, १७ प्रशस्त विहायोगतिनाम, १८ त्रसनाम, १९ बादरनाम, २० पर्याप्तनाम, २१ प्रत्येकशरीरनाम, २२ स्थित-अस्थिर नामों में से कोई एक, २३ शुभ-अशुभ नामों में से कोई एक, २४ आदेय-अनादेय नामों में से कोई एक, [२५ सुभगनाम, २६ सुस्वरनाम) २७ यशस्कीर्तिनाम और २८ निर्माणनाम, इन अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधता है।]
१८८-एवं चेव नेरइया वि, णाणत्तं-अप्पसत्थविहायोगइनाम हुंडगसंठाणणामं अथिरणामं दुब्भगणामं असुभणामं दुस्सरणामं अणादिज्जणामं अजसोकित्तिणामं निम्माणणाम।
इसी प्रकार नरकगति को बांधनेवाला जीव भी नामकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधता है। किन्तु वह प्रशस्त प्रकृतियों के स्थान पर अप्रशस्त प्रकृतियों को बांधता है। जैसे-अप्रशस्त विहायोगतिनाम, हुंडकसंस्थाननाम, अस्थिरनाम, दुर्भगनाम, अशुभनाम, दुःस्वरनाम, अनादेयनाम, अयशस्कीर्तिनाम और निर्माणनाम। इतनी मात्र ही भिन्नता है।
१८७-इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं अट्ठावीसं पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। अहे सत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं अट्ठावीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं अट्ठावीसं पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता।सोहम्मीसाणेसुकप्पेसु देवाणं अत्थेगइयाणं अट्ठावीसं पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता।
इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति अट्ठाईस पल्योपम कही गई है। अधस्तन सातवीं पृथिवी में कितनेक नारकियों की स्थिति अट्ठाईस सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमारों की स्थिति अट्ठाईस पल्योपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति अट्राईस पल्योपम कही गई है।
१९०-उवरिमहेट्ठिमगेवेज्जयाणं देवाणं जहण्णेणं अट्ठावीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। जे देवा मज्झिमउवरिमगेवेज्जएसु विमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसिणंदेवाणं उक्कोसेणं अट्ठावीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। ते णं देवा अट्ठावीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा। तेसि णं देवाणं अट्ठावीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजइ।
__ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे अट्ठावीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति।
उपरिम-अधस्तन ग्रैवेयक विमानवासी देवों की जघन्य स्थिति अट्ठाईस सागरोपम की है। जो देव मध्यम-उपरिम ग्रैवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति अट्ठाईस सागरोपम होती है। वे देव अट्ठाईस अर्धमासों (चौदह मासों) के बाद आन-प्राण या उच्छ्वासनिःश्वास लेते हैं। उन देवों को अट्ठाईस हजार वर्षों के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है।
कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो अट्ठाईस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्वदुःखों का अन्त करेंगे।
॥ अष्टाविंशतिस्थानक समवाय समाप्त॥