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एकोनत्रिंशत्स्थानक-समवाय]
[८३ एकोनत्रिंशत्स्थानक-समवाय १९१–एगूणतीसइविहे पावसुयपसंगेणं पण्णत्ते,तं जहा-भोमे उप्पाए सुमिणे अंतलिक्खे अंगे सरे वंजणे लक्खणे ८। भोमे तिविहे पण्णत्ते। तं जहा-सुत्ते वित्ती वत्तिए ३। एवं एक्केक्कं तिविहं २४। विकहाणुजोगे २५, विज्जाणुजोगे २६, मंताणुजोगे २७, जोगाणुजोगे २८, अण्णतिथियपवत्ताणुजोगे २९।।
पापश्रुतप्रसंग-पापों के उपार्जन करनेवाले शास्त्रों का श्रवण-सेवन उनतीस प्रकार का कहा गया है, जैसे
१. भौमश्रुत-भूमि के विकार, भूकम्प आदि का फल-वर्णन करनेवाला निमित्त-शास्त्र। २. उत्पातश्रुत-अकस्मात् रक्त-वर्षा आदि उत्पातों का फल बतानेवाला निमित्तशास्त्र। ३. स्वप्नश्रुत-शुभ-अशुभ स्वप्नों का फल वर्णन करनेवाला श्रुत।
४. अन्तरिक्षश्रुत-आकाश में विचरनेवाले ग्रहों के युद्धादि होने, ताराओं के टूटने और सूर्यादि के ग्रहण, ग्रहोपराग आदि का फल बतानेवाला श्रुत।
५. अंगश्रुत-शरीर के विभिन्न अंगों के हीनाधिक होने और नेत्र, भुजा आदि के फड़कने का फल बतानेवाला श्रुत।
६. स्वरश्रुत- मनुष्यों, पशु-पक्षियों एवं अकस्मात् काष्ठ-पाषाणादि-जनित स्वरों (शब्दों) को सुनकर उनके फल को बतानेवाला श्रुत।।
७. व्यंजनश्रुत-शरीर में उत्पन्न हुए तिल, मषा आदि का फल बतानेवाला श्रुत। ८. लक्षणश्रुत-शरीर में उत्पन्न चक्र, खङ्ग, शंखादि चिह्नों का फल बतानेवाला श्रुत। भौमश्रुत तीन प्रकार का है, जैसे-सूत्र, वृत्ति और वार्त्तिक। १. अंगश्रुत के सिवाय अन्य मतों की सहस्र पद-प्रमाण रचना को सूत्र कहते हैं। २. उन्हीं सूत्रों की लक्ष-पद-प्रमाण व्याख्या को वृत्ति कहते हैं। ३. उस वृत्ति की कोटि-पद प्रमाण व्याख्या को वार्तिक कहते हैं।
इन सूत्र, वृत्ति और वार्तिक के भेद से उपर्युक्त भौम, उत्पाद आदि आठों प्रकार के श्रुत के (८४ ३ = २४) चौबीस भेद हो जाते हैं।
अंगश्रुत की लक्ष-पद-प्रमाण रचना को सूत्र, कोटि-पद प्रमाण व्याख्या को वृत्ति और अपरिमित पद-प्रमाण व्याख्या को वार्तिक कहा जाता है।
२४. विकथानुयोगश्रुत-स्त्री, भोजन-पान आदि की कथा करनेवाले तथा अर्थ-काम आदि की प्ररूपणा करनेवाले पाकशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र आदि।
२६. विद्यानुयोगश्रुत-रोहिणी, प्रज्ञप्ति, अंगुष्ठप्रसेनादि विद्याओं को साधने के उपाय और उनका उपयोग बतानेवाले शास्त्र।