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अष्टाविंशतिस्थानक - समवाय ]
मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे ओर सर्वदुःखों का अन्त करेंगे।
॥ सप्तविंशतिस्थानक समवाय समाप्त ॥
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अष्टाविंशतिस्थानक - समवाय
१८३ - अट्ठावीसविहे आयारपकप्पे पण्णत्ते, तं जहा - मासिआ आरोवणा १, सपंचराई मासिआ आरोवणा २, सदसरईमासिया आरोवणा ३ । [ सपण्णरसराइ - मासिआ आरोवणा ४, सवीसइराईमासिआ आरोवणा ५, सपंचवीसराइ - मासिआ आरोवणा ६ ] एवं चेव दो मासिआ आरोवणा सपंचराई दो मासिया आरोवणा ०६ । एवं तिमासिया आरोवणा ६, चउमासिया आरोवणा ६, उवघाइया आरोवणा २५, अणुवघाइया आरोवणा २६, कसिणा आरावणा २७, अकसिणा आरोवणा २८ । एतावता आयारपकप्पे एताव ताव आयरियव्वे ।
आचारप्रकल्प अट्ठाईस प्रकार का कहा गया है, जैसे- १ मासिकी आरोपणा, २ सपंचरात्रिमासिकी आरोपणा, ३ सदशरात्रिमासिकी आरोपणा, ४ सपंचदशरात्रिमासिकी आरोपणा, सविंशतिरात्रिमासिकी आरोपणा, ५ सपंचविंशतिरात्रिमासिकी आरोपणा ६ इसी प्रकार द्विमासिकी आरोपणा, ६ त्रिमासिकी आरोपणा, ६ चतुर्मासिकी आरोपणा, ६ उपघातिका आरोपणा, २५ अनुपघातिका आरोपणा, २६ कृत्स्ना आरोपणा, २७ अकृत्स्ना आरोपणा, २८ यह अट्ठाईस प्रकार का आचारप्रकल्प है। यह तब तक आचरणीय है । (जब तक कि आचरित दोष की शुद्धि न हो जावे ।)
विवेचन - 'आचार' नाम का प्रथम अंग है। उसके अध्ययन-विशेष को प्रकल्प कहते हैं । उसका दूसरा नाम 'निशीथ ' भी है। उसमें अज्ञान, प्रमाद या आवेश आदि से साधु-साध्वी द्वारा किये गये अपराधों की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। इसको आचारप्रकल्प कहने का कारण यह है कि प्रायश्चित्त देकर साधु-साध्वी को उनके ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप आचार में पुनः स्थापित किया जाता है। इस आचारप्रकल्प या प्रायश्चित्त के प्रकृत सूत्र में अट्ठाईस भेद कहे गये हैं, उनका विवरण इस प्रकार हैं
किसी अनाचार का सेवन करने पर साधु को उसकी शुद्धि के लिए कुछ दिनों तक तप करने का प्रायश्चित्त दिया गया। उस प्रायश्चित्त की अवधि पूर्ण होने के पहले ही उसने पूर्व से भी बड़ा कोई अपराध कर डाला, जिसकी शुद्धि एक मास के तप से होना सम्भव हो, तब उसे उसी पूर्व प्रदत्त प्रायश्चित्त में एक मास के वहन-योग्य जो मास भर का प्रायश्चित्त दिया जाता है, उसे मासिकी आरोपणा कहते हैं ॥१॥
कोई ऐसा अपराध करे जिसकी शुद्धि पाँच दिन-रात्र के तप के साथ एक मास के तप से हो, तो ऐसे दोषी को उसी पूर्वदत्त प्रायश्चित्त में पांच दिन-रात सहित एक मास के प्रायश्चित्त को पूर्वदत्त प्रायश्चित्त में सम्मिलित करने को 'सपंचरात्रिमासिकी आरोपणा' कहते हैं ॥ १ ॥
इसी प्रकार पूर्व से भी कुछ बड़ा अपराध होने पर दश दिन-रात्रि सहित एक मास के तप द्वारा शुद्धि योग्य प्रयाश्चित्त देने को सदशरात्रिमासिकी आरोपणा कहते हैं ||३ | इसी प्रकार मास सहित पन्द्रह, बीस और पच्चीस दिन रात्रि के वहन योग्य प्रायश्चित्त मासिक प्रायश्चित्त में आरोपण करने पर क्रमशः