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सप्तविंशतिस्थानक - समवाय ]
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सप्तविंशतिस्थानक - समवाय
१७९ - सत्तावीसं अणगारगुणा पण्णत्ता, तं जहा - पाणाइवायाओ वेरमणं १, मुसावायाओ वेरमणं २, अदिन्नादाणाओ वेरमणं ३, मेहुणाओ वेरमणं ४, परिग्गहाओ वेरमणं ५, सोइंदियनिग्गहे ६, चक्खिदियनिग्गहे ७, घाणिंदियणिग्गहे ८, जिब्भिदियणिग्गहे ९, फासिंदियनिग्गहे १०, कोहविवेगे ११, माणविवेगे १२, मायाविवेगे १३, लोभविवेगे १४, भावसच्चे १५, करणसच्चे १६, जोगसच्चे १७, खमा १८, विरागया १९, मणसमाहरणया २०, वयसमाहरणया २१, कायसमाहरणया २२, णाणसंपण्णया २३, दंसणसंपण्णया २४, चरित्तसंपण्णया २५, वेयण अहियासणया २६, मारणंतिय अहियासणया २७ ।
अनगार-निर्ग्रन्थ साधुओं के सत्ताईस गुण हैं, जैसे- १. प्राणातिपात - विरमण, २ मृषावादविरमण, ३ अदत्तादान - विरमण, ४. मैथुन - विरमण, ५ परिग्रह - विरमण, ६ श्रोत्रेन्द्रिय - निग्रह, ७ चक्षुरिन्द्रियनिग्रह, ८ घ्राणेन्द्रिय-निग्रह, ९ जिह्वेन्द्रिय - निग्रह, १० स्पर्शनेन्द्रिय - निग्रह, ११ क्रोधविवेक, १२ मानविवेक, १३ मायाविवेक, १४ लोभविवेक, १५ भावसत्य, १६ करणसत्य, १७ योगसत्य, १८ क्षमा, १९ विरागता, २० मनः समाहरणता, २१ वचनसमाहरणता, २२ कायसमाहरणता, २३ ज्ञानसम्पन्नता, २४ दर्शनसम्पन्नता, २५ चारित्रसम्पन्नता, २६ वेदनातिसहनता और २७ मारणान्तिकातिसहनता ।
विवेचन - अनगार श्रमणों के प्राणातिपात विरमण आदि पाँच महाव्रत मूलगुण हैं। शेष बाईस उत्तरगुण हैं। जिनमें पांचों इन्द्रियों के विषयों का निग्रह करना, अर्थात् उनकी उच्छृंखल प्रवृत्ति को रोकना और क्रोधादि चारों कषायों का विवेक अर्थात् परित्याग करना आवश्यक है । अन्तरात्मा की शुद्धि को भावसत्य कहते हैं । वस्त्रादि का यथाविधि प्रतिलेखन करते पूर्ण सावधानी रखना करणसत्य है । मन वचन काय की प्रवृत्ति समीचीन रखना अर्थात् तीनों योगों की शुद्धि या पवित्रता रखना योगसत्य है । मन में भी क्रोध भाव न लाना, द्वेष और अभिमान का भाव जागृत न होने देना क्षमा गुण है । किसी भी वस्तु में आसक्ति नहीं रखना विरागता गुण । मन, वचन और काय की अशुभ प्रवृत्ति का विरोध करना उनकी समाहरणता कहलाती है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र से सम्पन्नता तो साधुओं के होना ही चाहिए । शीत - उष्ण आदि वेदनाओं को सहना वेदनातिसहनता है । मरण के समय सर्व प्रकार के परीषहों और उपसर्गों को सहना तथा किसी व्यक्ति के द्वारा होने वाले मारणान्तिक कष्ट को सहते हुए भी उस पर कल्याणकारी मित्र की बुद्धि रखना मारणान्तिकातिसहनता है ।
यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि दिगम्बर- परम्परा में साधुओं के २८ गुण कहे गये हैं । उनमें पाँच महाव्रत और पाँचों इन्द्रियों का निरोध रूप १० गुण तो उपर्युक्त ही हैं। शेष १८ गुण इस प्रकार हैं - पांच समितियों का परिपालन, तीन गुप्तियों का पालन, सामायिक वन्दनादि छह आवश्यक करना, अचेल रहना, एक बार भोजन करना, केशलुंच करना और स्नान - दन्तधावनादि का त्याग करना ।
दोनों में एक अचेल या नग्न रहने का ही मौलिक अन्तर है। शेष गुणों का परस्पर एक-दूसरे गुणों में अन्तर्भाव हो जाता है ।
१७९ - जंबुद्दीवे दीवे अभिइवज्जेहिं सत्तावीसाए एक्खत्तेहिं संववहारे वट्टति । एगमेगे णं