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रति भयं सोगं दुगुंछा ।
[ समवायाङ्गसूत्र
अभव्यसिद्धिक जीवों के मोहनीय, कर्म के छब्बीस कर्मांश ( प्रकृतियाँ) सत्ता में कहे गये हैं, जैसे - १. . मिथ्यात्व मोहनीय, १७. सोलह कषाय, १८. स्त्रीवेद, १९. पुरुषवेद, २०. नपुंसकवेद, २१. हास्य, २२. अरति, २३. रति, २४. भय, २५. शोक और २६. जुगुप्सा ।
विवेचन - दर्शनमोह का जब कोई जीव सर्वप्रथम उपशमन करके सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है, तब वह अनादिकाल से चले आ रहे दर्शनमोहनीय कर्म के तीन विभाग करता है। तब वह चारित्रमोह के उक्त पच्चीस भेदों के साथ अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्तावाला होता है । परन्तु अभव्य जीव कभी सम्यग्दर्शन को प्राप्त ही नहीं करते, अतः अनादि मिथ्यात्व के वे तीन विभाग भी नहीं कर पाते हैं । इससे उनके सदा ही मोहनीय कर्म की छब्बीस प्रकृतियाँ ही सत्ता में रहती हैं। मिश्र ओर सम्यक्त्वमोहनीय की सत्ता उनमें नहीं होती ।
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१७६ – इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं छव्वीसं पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं छव्वीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं छव्वीसं पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता । सोहम्मीसाणे णं देवाणं अत्थेगइयाणं छव्वीसं पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता ।
इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति छब्बीस पल्योपम कही गई है। अधस्तन सातवीं महातमः प्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति छब्बीस सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमर देवों की स्थिति छब्बीस पल्योपम कही गई है। सौधर्म - ईशान कल्प में रहने वाले कितनेक देवों की स्थिति छब्बीस पल्योपम कही गई है।
१७७ - मज्झिममज्झिमगेवेज्जयाणं देवाणं जहण्णेणं छव्वीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता । जे देवा मज्झिमट्ठिमगेवेज्जयविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं छव्वीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । ते णं देवा छव्वीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा। तेसि णं देवाणं छव्वीसं वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पज्जइ ।
संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे छव्वीसेहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिसंति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ।
मध्यम- मध्यम ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति छब्बीस सागरोपम कही गई है। जो देव मध्यमअधस्तनग्रैवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति छब्बीस सागरोपम कही गई है। वे देव छब्बीस अर्धमासों (तेरह मासों ) के बाद आन-प्राण या उच्छ्वास - नि:श्वास लेते हैं । उन देवों के छब्बीस हजार वर्षों के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है ।
कितनेक भवसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो छब्बीस भव करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्वदुःखों का अन्त करेंगे।
॥ षड्विंशतिस्थानक समवाय समाप्त ॥