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दशस्थानक-समवाय]
[२७ ऊंचे थे। ६५-दस नक्खत्ता नाणबुड्ढिकरा पण्णत्ता, तं जहा
मिगसिर अद्दा पुस्सो तिण्णि य पुव्वा य मूलमस्सेसा।
हत्थो चित्तो य तहा दस बुड्डिकराई नाणस्स ॥१॥ दश नक्षत्र ज्ञान की वृद्धि करने वाले कहे गये हैं यथा-मृगशिर, आर्द्रा, पुष्य, तीनों पूर्वाएं (पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वा भाद्रपदा) मूल, आश्लेषा, हस्त और चित्रा, ये दश नक्षत्र ज्ञान की वृद्धि करते हैं। अर्थात् इन नक्षत्रों में पढ़ना प्रारम्भ करने पर ज्ञान शीघ्र और विपुल परिमाण में प्राप्त होता है।
६६-अकम्मभूमियाणं मणुआणं दसविहा रुक्खा उवभोगत्ताए उवत्थिया पण्णत्ता, तं जहा
मत्तंगया य भिंगा, तुडिअंगा दीव जोइ चित्तंगा।
चित्तरसा मणिअंगा, गेहागारा अनिगिणा य॥२॥ अकर्मभूमिज मनुष्यों के उपभोग के लिए दश प्रकार के वृक्ष (कल्पवृक्ष) उपस्थित रहते हैं। जैसे. मद्यांग, भंग, तूर्यांग, दीपांग, ज्योतिरंग, चित्रांग, चित्तरस, मण्यंग, गेहाकार और अनग्नांग (१)।
विवेचन-जहाँ पर उत्पन्न होने वाले मनुष्यों को असि मषि, कृषि अदि किसी भी प्रकार का आजीविका-सम्बन्धी कार्य नहीं करना पड़ता है, किन्तु जिनकी सभी आवश्यकताएँ वृक्षों से पूर्ण हो जाती हैं, ऐसी भूमि को अकर्मभूमि या भोगभूमि कहते हैं और जिन वृक्षों से उनकी आवश्यकताएं पूरी होती हैं, उन्हें कल्पवृक्ष कहा जाता है। मद्यांग जाति के वृक्षों से अकर्मभूमि के मनुष्यों को मधुर मदिरा प्राप्त होती है। भंग जाति के वृक्षों से उन्हें भाजन-पात्र प्राप्त होते हैं। तूर्यांग जाति के वृक्षों से उन्हें वादित्र प्राप्त होते हैं। दीपांग जाति के वृक्षों से दीप-प्रकाश मिलता है। ज्योतिरंग वृक्षों से अग्नि के सदृश प्रकाश प्राप्त होता है। चित्रांग वृक्षों से नाना प्रकार के पुष्प प्राप्त होते हैं। चित्ररस जाति के वृक्षों से अनेक रसवाला भोजन प्राप्त होता है। मण्यंग जाति के वृक्षों से आभूषण प्राप्त होते हैं। गेहाकर वृक्षों से उनको निवासस्थान प्राप्त होता है और अनग्न वृक्षों से उन्हें वस्त्र प्राप्त होते हैं।
६७-इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं जहण्णेणं दस वाससहस्साइं ठिई पण्णत्ता। इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं दस पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। चउत्थीए पुढवीए दस निरयावाससयसहस्साइं पण्णत्ताई। चतुत्थीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। पंचमीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं जहेण्णेणं दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता।
इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कितनेक नारकों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है। इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कितनेक नारकों की स्थिति दस पल्योपम की कही गई है। चौथी नरक पृथ्वी में दस लाख नारकावास हैं। चौथी पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति दस सागरोपम की होती है। पांचवीं पृथ्वी में किन्हीं-किन्हीं नारकों की जघन्य स्थिति दस सागरोपम कही गई है।