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सप्तदशस्थानक-समवाय]
[५३ १०. बालपंडितमरण, ११. छद्मस्थमरण, १२. केवलिमरण, १३. वैहायसमरण, १४. गृद्धस्पृष्ट या गृद्धपृष्ठमरण, १५. भक्तप्रत्याख्यानमरण, १६. इंगिनीमरण, १७. पादपोपगमनमरण।
विवेचन-विवरण इस प्रकार है
१. आवीचिमरण-जल की तरंग या लहर को वीचि कहते हैं। जैसे जल में वायु के निमित्त से एक के बाद दूसरी तरंग उठती रहती है, उसी प्रकार आयुकर्म के दलिक या निषेक प्रतिसमय उदय में आते हुए झड़ते या विनष्ट होते रहते हैं। आयुकर्म के दलिकों का झड़ना ही मरण है। अतः प्रतिसमय के इस मरण को अवीचिमरण कहते हैं। अथवा वीचि नाम विच्छेद का भी है। जिस मरण में कोई विच्छेद या व्यवधान न हो, उसे आवीचिमरण कहते हैं । ह्रस्व अकार के स्थान पर दीर्घ आकार प्राकृत में हो जाता है।
२. अवधिमरण-अवधि सीमा या मर्यादा को कहते हैं। मर्यादा से जो मरण होता है, उसे अवधिमरण कहते हैं। कोई जीव वर्तमान भव की आयु को भोगता हुआ आगामी भव की भी उसी आयु को बाँधकर मरे और आगामी भव में भी उसी आयु को भोगकर मरेगा, तो ऐसे जीव के वर्तमान भव में मरण को अवधिमरण कहा जाता है। तात्पर्य यह कि जो जीव आयु के जिन दलिकों को अनुभव करके मरता है, यदि पुनः उन्हीं दलिकों का अनुभव करके मरेगा, जो वह अवधिमरण कहलाता है।
. ३. आत्यन्तिकमरण-जो जीव नारकादि के वर्तमान आयुकर्म के दलिकों को भोगकर मरेगा और मर कर भविष्य में उस आयु को भोगकर नहीं मरेगा, ऐसे जीव के वर्तमान भव के मरण को आत्यन्तिकमरण कहते हैं।
४. वलन्मरण-संयम, व्रत, नियमादि धारण किये हुए धर्म से च्युत या पतित होते हुए अव्रतदशा में मरने वाले जीवों के मरण को वलन्मरण कहते हैं।
५. वशार्तमरण- इन्द्रियों के विषय के वश होकर अर्थात् उनसे पीड़ित होकर मरने वाले जीवों के मरण को वशार्तमरण कहते हैं। जैसे रात में पतंगे दीपक की ज्योति से आकृष्ट होकर मरते हैं, उसी प्रकार किसी भी इन्द्रियों के विषय से पीड़ित होकर मरना वशार्तमरण कहलाता है।
६. अन्तःशल्यमरण-मन के भीतर किसी प्रकार के शल्य को रख कर मरने वाले जीव के मरण को अन्तःशल्यमरण कहते हैं। जैसे कोई संयमी पुरुष अपने व्रतों में लगे हुए दोषों की लज्जा, अभिमान आदि के कारण आलोचना किये बिना दोष के शल्य को मन में रखकर मरे।
७. तद्भवमरण-जो जीव वर्तमान भव में जिस आयु को भोग रहा है, उसी भव के योग्य आयु | बाँधकर यदि मरता है, तो ऐसे मरण को तद्भवमरण कहा जाता है। यह मरण मनुष्य या तिर्यंच गति
जीवों का ही होता है। देव या नारकों का नहीं होता है, क्योंकि देव या नारकी मर कर पुनः देव या नारकी नहीं हो सकता, ऐसा नियम है। उनका जन्म मनुष्य या तिर्यंच पंचेन्द्रियों में ही होता है।
८.बालमरण-आगम भाषा में अविरत या मिथ्यादृष्टि जीव को 'बाल' कहा जाता है। मिथ्यादृष्टि और असंयमी जीवों के मरण को बालमरण कहते हैं। प्रथम गुणस्थान से लेकर चौथे तक के जीवों का मरण बालमरण कहलाता है।