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[समवायाङ्गसूत्र अष्टादशस्थानक-समवाय १२५-अट्ठारसविहे बंभे पण्णत्ते, तं जहा-ओरालिए कामभोगे णेव सयं मणेणं सेवइ १,नोवि अण्णं मणेणं सेवावेइ २, मणेणं सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणाइ ३, ओरालिए कामभोगे णेव सयं वायाए सेवइ ४, नोवि अण्णं वायाए सेवावेइ ५, वायाए सेवंतं पिअण्णं न समणुजाणाइ ६।ओरालिए कामभोगे णेव सयं काएणं सेवइ ७, णोवि य अण्णं काएणं सेवावेइ ८, काएणं सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणाइ ९। दिव्वे कामभोगे णेव सयं मणेणं सेवइ १०, णोवि अण्णं मणेणं सेवावेइ ११, मणेणं सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणाइ १२। दिव्वे कामभोगे णेव सयं वायाए सेवइ १३,णोवि अण्णं वायाए सेवावेइ १४, वायाए सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणाइ १५। दिव्वे कामभोगे णेव सयं काएणं सेवइ १६, णोवि अण्णं काएणं सेवावेइ १७, काएणं सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणाइ १८।
ब्रह्मचर्य अठारह प्रकार का कहा गया है, जैसे-औदारिक (शरीर वाले मनुष्य-तिर्यंचों के) काम-भोगों को न ही मन से स्वयं सेवन करता है, न ही अन्य को मन से सेवन कराता है और न मन से सेवन करते हुए अन्य की अनुमोदना करता है ३। औदारिक-कामभोगों को न ही वचन से स्वयं सेवन करता है, न ही अन्य को वचन से सेवन कराता है और न ही सेवन करते हुए अन्य की वचन से अनुमोदना करता है ६। औदारिक-कामभोगों को न ही स्वयं काय से सेवन करता है, न ही अन्य को काय से सेवन कराता है और न ही काय से सेवन करते हुए अन्य की अनुमोदना करता है ९ । दिव्य (देव-देवी सम्बन्धी) काम-भोगों को न ही स्वयं मन से सेवन करता है, न ही अन्य को मन से सेवन कराता है और न ही मन से सेवन करते हए अन्य की अनमोदना करता है १२ दिव्य-काम भोगों को न ही स्वयं वचन से सेवन करता है, न ही अन्य को वचन से सेवन कराता है और न ही सेवन करते हुए अन्य की वचन से अनुमोदना करता है १५ । दिव्य-कामभोगों को न ही स्वयं कास से सेवन करता है, न ही अन्य को काय से सेवन कराता है और न ही काय से सेवन करते हुए अन्य की अनुमोदना करता है १८ ।
१२६-अरहतो णं अरिट्ठनेमिस्स अट्ठारस समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपया होत्था। समणेणं भगवया महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं सखुड्डयविअत्ताणं अट्ठारस ठाणा पण्णत्ता, तं जहा
वयछक्कं ६ कायछक्कं १२ अकप्पो १३ गिहिभायणं १४ ।
पलियंक १५ निसिज्जा १६ य सिणाणं १७ सोभवज्जणं १८ ॥१॥ अरिष्टनेमि अर्हत् की उत्कृष्ण श्रमण-सम्पदा अठारह हजार साधुओं की थी। श्रमण भगवान् महावीर ने सक्षुद्रक-व्यक्त-सभी श्रमण निर्ग्रन्थों के लिये अठारह स्थान कहे हैं, जैसे-व्रतषट्क ६, कायषट् १२, अकल्प १३, (वस्त्र, पात्र, भक्त-पानादि) गृहि-भाजन १४, पर्यङ्क (पलंग आदि) १५, निषद्या (स्त्री के साथ एक आसन पर बैठना) १६, स्नान १७ और शरीर-शोभा का त्याग १८।
विवेचन-साधु दो प्रकार के होते हैं - वय (दीक्षा पर्याय) से और श्रुत (शास्त्रज्ञान) से अव्यक्त-अपरिपक्व और वय तथा श्रुत दोनों से व्यक्त- परिपक्व। इनमें अव्यक्त साधु को क्षुद्रक या