________________
एकोनविंशतिस्थानक-समवाय]
अवरे अ, १९पोण्डरीए णाए एगूणवीसइमे। ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के (प्रथम श्रुतस्कन्ध के) उन्नीस अध्ययन कहे गये हैं, जैसे- १. उत्क्षिप्तज्ञात, २.सघाट, ३. अंड, ४. कूर्म, ५. शैलक,६. तुम्ब,७.रोहिणी,८. मल्ली ,९. माकंदी, १०. चन्द्रिमा.११.
दकज्ञात, १३. मडूक,१४. तेतला,१५. नन्दिफल, १६. अपरकका,१७. आकीर्ण, १८ सुंसुमा और १९. पुण्डरीकज्ञात ॥१-२॥
१३४-जंबूदीवे णं दीवे सूरिआ उक्कोसेणं एगूणवीसं जोयणसयाइं उड्डमहो तवयंति। जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप में सूर्य उत्कृष्ट रूप से एक हजार नौ सौ योजन ऊपर और नीचे तपते हैं।
विवेचन–रत्नप्रभा पृथिवी के उपरिम भूमिभाग से ऊपर आठ सौ योजन पर सूर्य अवस्थित है और उक्त भूमिभाग से एक हजार योजन गहरा लवणसमुद्र है। इसलिए सूर्य अपने उष्ण प्रकाश से ऊपर सौ योजन तक-जहां तक कि ज्योतिश्चक्र अवस्थित है, तथा नीचे अठारह सौ यौजन अर्थात् लवणसमुद्र के अधस्तन तल तक इस प्रकार सर्व मिलाकर उन्नीस सौ (१९००) योजन के क्षेत्र को संतप्त करता है।
१३५-सुक्के णं महग्गहे अवरेणं उदिए समाणे एगूणवीसं णक्खत्ताई समं चारं चरित्ता अवरेणं अस्थमणं उवागच्छइ।
— शुक्र महाग्रह पश्चिम दिशा से उदित होकर उन्नीस नक्षत्रों के साथ सहगमन करता हुआ पश्चिम दिशा में अस्तंगत होता है।
१३६-जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स कलाओ एगूणवीसं छेअणाओ पण्णत्ताओ। जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप की कलाएं उन्नीस छेदनक (भागरूप) कही गई हैं।
विवेचन-जम्बूद्वीप का विस्तार एक लाख योजन है। उसके भीतर जो छह वर्षधर पर्वत और सात क्षेत्र हैं, वे भारतवर्ष से मेरु पर्वत तक दूने-दूने विस्तार वाले हैं और मेरु से आगे ऐरवत वर्ष तक आधे-आधे विस्तार वाले है। इन सबका योग (१+२+४+८+१६+३२+१६+८+४+२+१=१९०) एक सौ नव्वे होता है। इस (१९०) का भाग एक लाख में देने पर ५२६ आता है। ऊपर के शून्य का नीचे के शून्य के साथ अपवर्तन कर देने पर ६/१९ रह जाता है। प्रकृत सूत्र में इसी उन्नीस भागरूप कलाओं का उल्लेख किया गया है, क्योंकि १९० भागों में जिस क्षेत्र या कुलाचल (वर्षधर) की जितनी शलाकाएं हैं, उनसे इसे गुणित करने पर उस विवक्षित क्षेत्र या कुलाचल का विस्तार निकल आता है।
१३७–एगूणवीसं तित्थयरा अगारवासमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारिअं पव्वइआ।
उन्नीस तीर्थंकर अगार-वास में रह कर फिर मुंडित होकर अगार से अनगार प्रव्रज्या को प्राप्त हुए-गृहवास त्याग कर दीक्षित हुए।
विवेचन-वासुपूज्य, मल्ली, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ और महावीर, ये पाँच तीर्थंकर कुमार अवस्था में ही प्रवजित हुए। शेष उन्नीस तीर्थंकरों ने गृहवास छोड़ कर प्रव्रज्या ग्रहण की।
१३८-इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइआणं नेरइयाणं एगूणवीसपलिओवमाइं