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विंशतिस्थानक-समवाय]
[६१ चलना, २. अप्रमार्जितचारी होना, ३. दुष्प्रमार्जितचारी होना, ४. अतिरिक्त शय्या-आसन रखना ५. रात्निक साधओं का पराभव करना, ६.स्थविर साधओं को दोष लगाकर उनका उपघात या अपमान करना. ७. भतों (एकेन्द्रिय जीवों) का व्यर्थ उपघात करना. ८.सदा रोषयक्त प्रवत्ति करना. ९. अतिक्रोध करना १०. पीठ पीछे दूसरे का अवर्णवाद करना, ११. निरन्तर-सदा ही दूसरों के गुणों का विलोप करना, जो व्यक्ति दास या चोर नहीं है, उसे दास या चोर आदि कहना, १२. नित्य नये अधिकरणों (कलह अथवा
दकों) को उत्पन्न करना, १३.क्षमा किये हुए या उपशान्त हुए अधिकरणों (लड़ाई-झगड़ों) को पुनः पुनः जागृत करना, १४. सरजस्क (सचेतन धूलि आदि से युक्त हाथ-पैर रखना, सरजस्क हाथ वाले व्यक्ति से भिक्षा ग्रहण करना और सरजस्क स्थंडिल आदि पर चलना,सरजस्क आसनादि पर बैठना, १५. अकाल में स्वाध्याय करना और काल में स्वाध्याय नहीं करना, १६.कलह करना, १७. रात्रि में उच्च स्वर से स्वाध्याय और वार्तालाप करना, १८. गण या संघ में फूट डालने वाले वचन बोलना, १९. सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त होने तक खाते-पीते रहना तथा २०. एषणासमिति का पालन नहीं करना और अनेषणीय भक्त पान को ग्रहण करना।
विवेचन-जिन कार्यों के करने से अपने या दूसरे व्यक्तियों के चित्त में संक्लेश उत्पन्न हो उनको असमाधिस्थान कहते हैं। सूत्र-प्रतिपादित सभी कार्यों से दूसरों को तो संक्लेश और दु:ख होता ही है, साथ ही उक्त कार्यों के करने वालों को भी बिना देखे, शोधे धप धप करते हुए चलने पर ठोकर आदि लगने से, तथा साँप, बिच्छू आदि के द्वारा काट लिए जाने पर महान् संक्लेश और दु:ख उत्पन्न होता है। साधु मर्यादा से अधिक शय्या आसनादि के रखने पर, दूसरों का पराभव करने पर, गुरुजनादिकों का अपमान करने पर और नित्य नये झगड़े-टंटे उठाने पर संघ में विक्षोभ उत्पन्न होता है और संघ द्वारा बहिष्कार कर दिये जाने पर तथा दिन भर खाने से रोगादि हो जाने पर स्वयं को भी भारी दु:ख पैदा होता है। इसलिए उक्त सभी बीसों कार्यों को असमाधिस्थान कहा गया है।
१४१ –मुणिसुव्वए णं अरहा वीसं धणूइं उड्डे उच्चत्तेणं होत्था। सव्वेवि अ घणोदही वीसं जोयणसहस्साइं बाहल्लेणं पण्णत्ता। पाणयस्स णं देविंदस्स देवगणो वीसं सामाणिअसाहस्सीओ पण्णत्ताओ।णपुंसयवेयणिजस्स णं कम्मस्स वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ बंधओ बंधठिई पण्णत्ता। पच्चाक्खाणस्स णं पुव्वस्स वीसं वत्थू पण्णत्ता। उस्सप्पिणिओसप्पिणिमंडले वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ कालो पण्णत्तो।
___मुनिसुव्रत अर्हत् बीस धनुष ऊंचे थे। सभी घनोदधिवातवलय बीस हजार योजन मोटे कहे गये हैं। प्राणत देवराज देवेन्द्र के सामानिक देव बीस हजार कहे गये हैं। नपुंसक वेदनीय कर्म की, नवीन कर्मबन्ध की अपेक्षा [उत्कृष्ट] स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम कही गई है। प्रत्याख्यान पूर्व के बीस वस्तु नामक अर्थाधिकार कहे गये हैं। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी मंडल (आर-चक्र) बीस कोड़ा-कोड़ी सागरोपम काल परिमित कहा गया है। अभिप्राय यह है कि दस कोड़ाकोडी सागरोपम का उत्सर्पिणी काल और दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का अवसर्पिणीकाल मिल कर बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का एक कालचक्र कहलाता है।