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चतुर्विंशतिस्थानक-समवाय]
[६९ चौबीस देवाधिदेव कहे गये हैं, जैसे- ऋषभ, अजित, संभव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, सुविधि (पुष्पदन्त) शीतल, श्रेयान्स, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, अर, मल्ली, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्वनाथ और वर्धमान ।
१६१-चुल्लहिमवंत --सिहरीणं वासहरपव्वयाणं जीवाओ चउव्वीसं चउव्वीसं जोयणसहस्साइं णव-वत्तीसे जोयणसए एगं अट्ठत्तीसइ भागं जोयणस्स किंचि विसेसाहियाओ आयामेणं पण्णत्ता।
क्षुल्लक हिमवन्त और शिखरी वर्षधर पर्वतों की जीवाएं चौबीस-चौबीस हजार नौ सौ बत्तीस योजन और एक योजन के अड़तीस भागों में से एक भाग से कुछ अधिक लम्बी कही गई हैं।
१६२-चउवीसं देवट्ठाणा सइंदया पण्णत्ता, सेसा अहमिंद अनिंदा अपुरोहिआ।
चौबीस देवस्थान इन्द्र-सहित कहे गये हैं। शेष देवस्थान इन्द्र-रहित, पुरोहित-रहित हैं और वहाँ के देव अहमिन्द्र कहे जाते हैं।
विवेचन-जो चौबीस देवस्थान इन्द्र सहित कहे गये हैं, वे इस प्रकार हैं-दश जाति के भवनवासी देवों के दश स्थान, आठ जाति के व्यन्तर देवों के आठ स्थन, पांच प्रकार के ज्योतिष्क देवों के पाँच स्थान और सौधर्मादि कल्पवासी देवों का एक स्थान। इस प्रकार ये सब मिलकर (१०+८+५+१=२४) चौबीस होते हैं। इन सभी स्थानों में राजा प्रजा आदि जैसी व्यवस्था है, अतः उनके अधिपतियों को इन्द्र कहा जाता है। किन्तु नौ ग्रैवेयक और पाँच अनुत्तर विमानों में राजा प्रजा आदि की कल्पना नहीं है, किन्तु वहाँ के सभी देव समान ऐश्वर्य एवं वैभव वाले हैं, वे सभी अपने को 'अहम् इन्द्र :' मैं इन्द्र हूँ इस प्रकार अनुभव करते हैं, इसलिये वे 'अहमिन्द्र' कहलाते हैं और इसी कारण उन चौदह ही स्थानों को अनिन्द्र (इन्द्र-रहित) और अपुरोहित (पुरोहित-रहित) कहा गया है। यह अपुरोहित शब्द उपलक्षण है, अत: जहाँ इन्द्र होता है, वहाँ उसके साथ सामानिक, त्रायस्त्रिंश, आत्मरक्षक, पुरोहित और लोकपालादि भी होते हैं। किन्तु जहाँ इन्द्र की कल्पना नहीं है, उन देवस्थानों को ‘अनिन्द्र, अपुरोहित्त' आदि शब्दों से कहा गया है।
१६३-उत्तरायणगते णं सूरिए चउवीसंगुलिए पोरिसिछायं णिव्वत्तइत्ता णं णिअट्टत्ति। गंगा-सिंधूओ णं महाणदीओ पवाहे सातिरेगेणं चउवीसं कोसे वित्थारेणं पण्णत्ते।रत्त-रत्तवतीओ णं महाणदीओ पवाहे सातिरेगेणं चउवीसं कोसे वित्थारेणं पण्णत्ते।
उत्तरायण-गत सूर्य चौबीस अंगुलवाली पौरुषी छाया को करके कर्क संक्रान्ति के दिन सर्वाभ्यन्तर मंडल से निवृत्त होता है, अर्थात् दूसरे मंडल पर आता है। गंगा-सिन्धु महानदियाँ प्रवाह (उद्गम)-स्थान पर कुछ अधिक चौबीस-चौबीस कोश विस्तार वाली कही गई हैं। [इसी प्रकार] रक्ता-रक्तवती महानदियाँ प्रवाह-स्थान पर कुछ अधिक चौबीस-चौबीस कोश विस्तारवाली कही गई हैं।
१६४-इमीणे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइआणं नेरइयाणं ठिई चउवीसं पलिओवमाइं